Thursday, January 7, 2016

लेख: दुश्मन से दोस्ती का नतीजा

तुफैल अहमद (निदेशक, मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन) 

यह अजीब है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने मोदी को फोन किया तो हम खुश हो गए, जबकि उनका देश 1999 से ही मसूद अजहर की हिफाजत कर रहा है। पठानकोट में भारतीय वायुसेना के बेस पर पाकिस्तानी आतंकियों के हमले ने यही दिखाया है कि हमारा दुश्मन बहुत ढीठ है। वह हमारे क्षेत्र में बार-बार घुस आता है, कई दिनों तक लड़ता है और हमारे सैनिकों की हत्या करता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। भारत दुश्मन के इलाके में नहीं, अपनी ही भूमि पर लड़ाई लड़ने पर मजबूर होता है। हर हमले के बाद हमारी ओर से कहा जाता है-‘हम मुंहतोड़ जवाब देंगे।’ भारत दुश्मन के हमले के लिए इंतजार करता है ताकि वह उत्तर दे सके। इसके विपरीत दुश्मन आक्रामक है। भारत स्वाभाविक रूप से शांतिप्रिय देश है, लेकिन हजारों सालों से विदेशियों ने हम पर हमले किए हैं। पूर्व राष्ट्रपति डॉ.कलाम ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ फायर’ में लिखा है-‘ बीते 3000 साल के इतिहास में दुनिया भर से लोग आए और उन्होंने हम पर आक्रमण किए, हमारी जमीन और हमारे दिमाग पर कब्जा किया। यूनानी, पुर्तगाली, ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच, सभी आए और सभी ने हमें लूटा और जो कुछ हमारा था, ले गए। हमने ऐसा किसी दूसरे देश के साथ नहीं किया। हमने किसी पर आक्रमण नहीं किया। हमने उनकी भूमि, उनकी संस्कृति, उनके इतिहास पर कब्जा नहीं किया और न ही अपनी जीवनशैली उन पर थोपी।’ 

क्या हम भीरु लोगों के देश हैं? हमने विदेशी आक्रांताओं का स्वागत किया, उनके साथ रहे हैं और उनके साथ खाते-पीते रहे हैं। ऐसे में यह आश्चर्यजनक नहीं कि भारत के बौद्धिकों, नौकरशाहों, पत्रकारों और कूटनीतिज्ञों का एक वर्ग पाकिस्तान से शांति वार्ता करने की सलाह सरकार को देता रहता है, यह जानते हुए भी कि शत्रु की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा। किसी देश का राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व अपने सामाजिक सोच-विचार के हिसाब से फैसला लेता है। भारत में सोच-विचार का माहौल मूलत: पत्रकारों और टिप्पणीकारों की बातों से बनता है, लेकिन दिल्ली में कई ऐसे हैं जो उसी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के एजेंडे के मन मुताबिक काम करते दिखते हैं जो आतंकी संगठनों को पालती-पोसती है। अपने कार्यकाल के पहले साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तानी सीमा पर सही नीति अपनाई थी। पाकिस्तानी की ओर से की जाने वाली हर गोलाबारी का भारत ने कड़ा जवाब दिया। पाकिस्तानी आश्चर्यचकित थे। सीमा पर शांति दिखने लगी थी, लेकिन दिल्ली में पाकिस्तानी लॉबी यह समझाने में सफल रही कि मोदी को पाकिस्तान का दौरा करना चाहिए। 25 दिसंबर को जब मोदी लाहौर में थे तब मैंने कहा था-‘मोदी के लाहौर दौरे के बाद मैं ध्यान रखूंगा कि अफगानिस्तान में भारतीय ठिकानों पर या भारत के अंदर आतंकी हमला होता है या नहीं?’ कोई भी विशेषज्ञ पूर्वानुमान लगा सकता था कि मोदी के लाहौर दौरे के बाद आतंकी हमले होंगे। पठानकोट में हमले के ठीक बाद मजार-ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला किया गया। जलालाबाद में भी दूतावास को निशाना बनाने की कोशिश की गई।

मोदी ने तब आत्मसमर्पण सा कर दिया जब उन्होंने मार्च में विदेश सचिव एस. जयशंकर को इस्लामाबाद भेजा। फिर उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को अपने पाकिस्तानी समकक्ष से गोपनीय बैठक के लिए बैंकाक भेजा। इसके बाद तो लगता है कि अमेरिकी विदेश विभाग ने भारत की पाकिस्तान नीति को दिशा देनी शुरू कर दी। मोदी ने तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (तापी) गैस पाइपलाइन आधारशिला समारोह में भाग लेने के लिए दिसंबर में उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को तुर्कमेनिस्तान भेजा। पठानकोट में हमले से पहले पाकिस्तान से बातचीत न करके भारत क्या खो रहा था? आखिर तापी के लिए अगले पच्चीस साल तक इंतजार क्यों नहीं किया जा सकता था? अगर अमेरिका दक्षिण एशिया को एक दिशा देना चाहता है तो वह पाकिस्तान की जिहादी सेना और उसकी आइएसआइ को फंडिंग क्यों कर रहा है जिसने कारगिल, मुंबई और कई बार कश्मीर में और अब पंजाब में हमले कराए हैं? लगता है कि भारत की पाकिस्तान नीति दिल्ली की पाकिस्तानी लॉबी और अमेरिका के प्रभाव में आ गई।

अमेरिका में पाकिस्तानी राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने अपनी किताब ‘मैग्नीफिसेंट डेल्यूजंस’ में लिखा है- जब पाकिस्तान विचार के स्तर पर ही था तब मोहम्मद अली जिन्ना की दो अमेरिकी अधिकारियों-अमेरिकी विदेश विभाग के रेमंड हेयर और दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के थॉमस वील के साथ बैठक हुई। जिन्ना ने उनसे कहा कि मध्य पूर्व तक ‘फैल रहे हिंदू साम्राज्यवाद’ को रोकने के लिए पाकिस्तान का निर्माण जरूरी है। अगस्त 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के एक माह के अंदर जिन्ना और नव निर्मित पाकिस्तान के अन्य अधिकारियों का ‘लाइफ’ पत्रिका की मारग्रेट बरके-व्हाइट ने इंटरव्यू किया। जिन्ना ने उनसे कहा था- ‘जितनी पाकिस्तान को अमेरिका की जरूरत है, उससे अधिक अमेरिका को पाकिस्तान की है।’

अगर बरके-व्हाइट आज पाकिस्तानी अधिकारियों को इंटरव्यू कर रही होतीं तो वे उनसे यही कहते- आतंकवादियों से बचने के लिए अमेरिका हमारी सेना को फंड देगा और इसके एवज में वह आतंकी तैयार करता रहेगा। पाकिस्तान अमेरिका से पैसा पाने के मकसद से ही आतंकी तैयार करता और पालता-पोसता है। इसे इससे समझा जा सकता है कि पाकिस्तान ने वजीरिस्तान में आतंकवादियों पर बम बरसाने के लिए एफ-16 बमवर्षक विमानों का उपयोग शुरू किया। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि अमेरिका उसकी सेना को और धन दे। क्रिस्टीन फेयर ने अपनी किताब ‘फाइटिंग टु द एंड’ में लिखा है- ‘पाकिस्तान ने इस्लामपसंद नेताओं की मदद लेना 1950 के दशक में ही शुरू कर दिया था। बाद में अफगानिस्तान में इस्लामपसंद जेहादियों की मदद ली गई।’ कश्मीर में 1947-48 में पाकिस्तान की ओर से जेहादियों के इस्तेमाल से भारतीय भली भांति परिचित हैं। 1971 में ढाका में आत्मसमर्पण करने वाले ब्रिगेडियर एएके नियाजी ने भी माना था कि घुसपैठ की रणनीति के साथ जेहादियों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया। नियाजी ने 1964 में लिखा था-‘हमले के किसी अन्य तरीके की तुलना में घुसपैठ से कम क्षति के साथ ज्यादा घातक परिणाम हासिल होते हैं।’ नियाजी को यह कहे हुए आधी सदी बीत गई है, लेकिन भारत तबसे कश्मीर में और अब पंजाब में पाकिस्तानी जेहादियों की घुसपैठ को ङोल रहा है। ऐसे में भारत के लिए सवरेत्तम सलाह यही हो सकती है कि दुश्मन पाकिस्तान को अलग-थलग करो, उसके साथ मेल-जोल बढ़ाना बंद करो और क्रिकेट भी रोक दो। 

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साभारजागरण समाचार 
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