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अमेरिका के दौरे से ठीक पहले मोदी अपनी 'मेक इन इंडिया' योजना को
लॉन्च करेंगे। योजना को ठीक यूएस दौरे से पहले लॉन्च करने के लिए पीछे मोदी
की रणनीति है कि वो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निवेश लाने की कोशिश कर
रहे हैं। इस योजना का मकसद देश को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का है।
इससे भारत में छोटे कारोबारियों को अवसर मिलेंगे, साथ ही एमएसएमई के जरिए
बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित होंगे और इकोनॉमिक ग्रोथ को रफ्तार मिलेगी। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मोदी ने ‘कम, मेक इन इंडिया’ का नारा देते
हुए दुनिया भर के उद्योगपतियों को भारत में निवेश का निमंत्रण दिया था और
भारत को ग्लोबल स्तर पर मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाकर देश में रोजगार बढ़ाने और
विभिन्न क्षेत्रों नई तकनीक लाने की बात कही थी। लेकिन, मेक इन इंडिया को
सफल बनाने के लिए मोदी के सामने कई चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों से पार पाए
बिना मोदी का भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना और 100 स्मार्ट सिटी बनाने
का सपना अधूरा रह सकता है। आइये जानते हैं इन चुनौतियों से निपटने के लिए क्या करना होगा मोदी को: - स्मार्ट् कंट्रोलः भारत में जनता के लिए आयात और ट्रेड किए जाने वाले फूड, कंज्यूमर गुड्स, इलेक्ट्रिकल प्रोडक्ट और लाइट इंजिनियरिंग गुड्स को कंट्रोल करना होगा। इन सभी पर नियंत्रण ताकत से नहीं बल्कि समझदारी से करना होगा। फूड इंडस्ट्री की बाधाएं दूर करने के लिए आयातित खाद्य के लिए मजबूत नियम और गुणवत्ता को मंजूरी देनी होगी। इम्पोर्ट्स के पास एफडीए की अनुमति नहीं होने के बावजूद भारतीय बाजार में चीनी चॉकलेट और कैंडिज की बाढ़ है।
- स्मार्ट सिटी और मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टरः स्मार्ट सिटीज में मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर्स को साथ जोड़कर रखना होगा। लेबर मार्केट, रहने लायक जगह और मार्कट तक पहुंच को आसान बनाना होगा। इसके लिए इकोसिस्टम की जरूरत होगी। स्पेशल इकोनॉमिक जोन में सरकार की नीतियों को बदलने की जरूरत है जो बिल्डर्स और डेवलपर्स को यहां निर्माण की अनुमति दे देते हैं जो मुलभूत सुविधाओं का ध्यान नहीं रखते।
- सेल्स टैक्स, ऑक्ट्रॉय और एंट्री टैक्स जैसे टैक्स भी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स को उठाने पड़ते हैं। हालांकि, जीएसटी के लागू होने के बाद इनसे मुक्ति मिलने की उम्मीद है। लेकिन, इसके लिए फिलहाल 3 से 5 साल तक का इंतजार करना होगा। इस दौरान इन टैक्सों से क्या होगा? क्या इंवेस्टमेंट प्लान करने के लिए कोई और रास्ता है या फिर जीएसटी के लागू होने का इंतजार करना होगा।
- स्मार्ट टैक्सेशनः मैन्युफैक्चरिंग की जीडीपी में मात्र 16 फीसदी की हिस्सेदारी है।एमएसएमई की हिस्सेदारी मात्र 28 फीसदी और सर्विस सेक्टर की 72 फीसदी है। वहीं, सुविधाओं की एवज में भी इंडस्ट्रीज एक्साइज ड्यूटी का भुगतान ज्यादा करती है, जो करीब जीडीपी का 60 फीसदी है। इसके अलावा सर्विस टैक्स भी अदा किया जाता है। एक्साइज ड्यूटी में राज्य सरकार की ओर से मिलने वाले लाभ के अलावा केन्द्र सरकार को भी छूट देनी होगी।
- इसके अलावा मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में इलेक्ट्रिसिटी को बढ़ाना होगा। किसानों को कृषि के लिए मुफ्त बिजली देने के लिए इंडस्ट्रीज पर 60 फीसदी अतिरिक्त चार्ज लगा है। बिजली की कमी और कैप्टिव पावर सप्लाई के प्रोडक्शन कॉस्ट बढ़ती है और प्रतिस्पर्धा को कम करता है। एक बेहतर बिजली मॉडल से इस कमी को दूर किया जा सकता है। इससे किसानों को मिलने वाली मुफ्त बिजली का बोझ इंडस्ट्रीज पर नहीं पड़ेगा। सरकार इस समस्या से अवगत है लेकिन, जरूरी बिजली के उत्पादन जल्द ही नहीं सुधारा जा सकता। इसके लिए सरकार को ही इंडस्ट्रीज को कैप्टिव पावर यूनिट लगाने के लिए सस्ती दरों पर लोन मुहैया कराने चाहिए।
- मालभाड़ा दरों में कटौतीः कई टैक्स के अलावा, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर मालभाड़ा दरों को भी वहन करते हैं। पैसेंजर्स फेयर को घटाने के लिए रेलवे हर अंतराल पर मालभाड़े को नहीं बढ़ा सकता। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर सबसे अधिक मालभाड़े की कोस्ट पर निर्भर करता है।
- एक्साइड ड्यूटी हॉलीडे में मुश्किल ये है कि ये मैन्युफैक्चरिंग लैंडस्केप को विकृत करता है। नए उद्यमी टैक्स छूट का लाभ अपनी पैकेजिंग और शिपिंग के लिए इस्तेमाल करते हैं। इंवेस्टमेंट प्लानिंग के लिए दूसरे क्षेत्रों में मिलने वाले लाभों का इंतजार करते हैं। इसे बदला जा सकता है। इससे छोटे कारोबारियों को लाभ मिल सकेगा।
- भूमि की कमीः नई और पुरानी मुन्युफैक्चरिंग यूनिट्स के लिए सबसे बड़ा चिंता का विषय है भूमि की कमी। यूनिट स्थापित करने के लिए उनके पास लैंड नहीं है और अगर है तो वो महंगी है। यूपीए सराकर के भूमि अधिग्रहण बिल के चलते जमीन की कीमतें चढ़ गई जिसके चलते मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स के इन महंगी जमीनों का अधिग्रहण मुश्किल हो गया। इनके पास बंजर और बेकार पड़ी जमीन पर यूनिट लगाने के अलावा कोई और चारा नहीं है। जबकि ऐसे क्षेत्रों में लेबर मिलने मुश्किल आती हैं। जिससे मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स लेबर को अट्रैक्ट नहीं कर पाती।
- इसके अलावा, मैन्युफैक्चरिंग पर निर्भर शहर भी अब अच्छे कर्मचारियों को अट्रैक्ट करने में नाकाम हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्र में युवाओं को आकर्षित करना नामुमिकन है। यही नहीं यदि कोई स्थापित यूनिट खुद को एक्सपैंड करने की प्लानिंग कर रही है तो सरकार की ओर से उसे अतिरिक्त जमीन मुहैया कराने की कोई सुविधा नहीं है। यही कारण है ऐसे राज्यों में इंडस्ट्रीज ने अब इंडस्ट्रियल पार्क्स को सर्विस देने बंद कर दिया है।
'मेक इन इंडिया' के लिए चुने गए 25 सेक्टर्स: 'मेक इन इंडिया' अभियान के लिए करीब 25 सेक्टर का चयन किया गया है।
इसमें ऑटो, विमानन, बायोटेक, कंस्ट्रक्शन, रसायन, इलेक्ट्रिकल मशीनरी,
इलेक्ट्रॉनिक्स, फूड प्रोसेसिंग, आईटी-बीपीओ, टेक्सटाइल, ताप बिजली, रेलवे,
फार्मा, सड़क और हाइवे शामिल हैं। इस योजना के तहत सरकार एफडीआई,
मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी और इंडस्ट्रियल कॉरिडोर को बढ़ावा देना चाहती है।
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर ही क्यों है जोर:
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर ही क्यों है जोर:
- मौजूदा समय में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का जीडीपी में योगदान 16 फीसदी है और वैश्विक योगदान 1.8 फीसदी है। वहीं इसके उलट चीन में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान 34 फीसदी है और वैश्विक योगदान 13.7 फीसदी है।
- हमारे देश में सर्विस सेक्टर पर ज्यादा फोकस किया गया है। इस सेक्टर का योगदान करीब 62.5 फीसदी है। इसलिए सरकार अपना ध्यान अब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर फोकस करना चाह रही है।
- विशेषज्ञों के मुताबिक विकास के लिए मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देना ही पड़ेगा। हालांकि यह मौजूदा समय में विकास का इंजन नहीं है। लेकिन इसे विकास का इंजन बनाया जा सकता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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