Friday, May 5, 2017

विद्यार्थी अवश्य पढ़ें: कॉलेज प्रोजेक्ट के प्रति क्यों होना चाहिए गंभीर?

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
असाइनमेंट और प्रोजेक्ट्स हर पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं। छात्र अतिरिक्त पांच या दस अंको के लिए आम तौर पर गूगल से कट-पेस्ट कर कॉलेज में जमा करने की खानापूर्ति पूरी कर देते हैं। अगर छात्र बिज़नेस
एडमिस्ट्रशन का हो और उसे विज्ञान का प्रोजेक्ट सबमिट करना हो तो वे गूगल से मिली सामग्री में एक शब्द भी जोड़ते या घटाते नहीं हैं। चेन्नई के लोयोला इंस्टिट्यूट ऑफ बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन के छह छात्रों के लिए भी यह एक ऐसे असाइनमेंट के रूप में ही शुरू हुआ था, जिसके जरिये उन्हें फाइनल एग्ज़ाम में अतिरिक्त 5 नंबर मिल सकते थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इस प्रोजेक्ट का आइडिया तेलंगाना निवासी एम. मोनिका के दिमाग में आया था। उन्होंने एक छोटे बच्चे की तस्वीर एक न्यूज़ चैनल में देखी थी, जिसमें फ्लोराइड प्रदूषण के कारण उसके शरीर का ढांचा ही रह गया था। वे इस समस्या के समाधान करने की कोशिश में थीं। उन्होंने पाया कि फ्लोराइड को कम करने का तरीका तो पहले से ही मौजूद है, लेकिन थोड़ी-सी पूछताछ से उन्हें पता चला कि इसकी लागत अधिक है और इसलिए इसके प्रति जागरूकता नहीं है। 
फिर मोनिका ने यह विषय डीएन प्रवीण, आरए दिव्या, एबीए दीपिका, एल. कृतिका और आरआर रोशन को सुझाया। वे यह आइडिया अपने केमिस्ट्री डिपार्टमेंट में ले गए और बताया कि वे इसके पीछे के विज्ञान के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। दूसरी तरफ टीम ने तमिलनाडु के जल आपूर्ति और ड्रेनेज बोर्ड से प्रोजेक्ट के लिए टाई-अप किया। जब उन्हें पता चला कि देश के 21 राज्यों और 6.50 लाख गांवों के 6.60 करोड़ लोगों में से एक लाख गांवों के 1.17 करोड़ लोग फ्लोराइड की समस्या से पीड़ित हैं तो वे अपने प्रोजेक्ट के प्रति काफी गंभीर हो गए। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि उन्हें पता चला कि राष्ट्रीय योजना के तहत फ्लोरोसिस की रोकथाम और नियंत्रण के लिए दिए जाने वाले फंड में से 75 प्रतिशत का उपयोग ही नहीं हो पाता। 
इसके बाद इस विचार पर एक दोस्त के साथ विचार-विमर्श किया गया, जिसने राख के उपयोग से पानी में से फ्लोराइड हटाने पर शोध किया था। कई लोगों से मदद लेने के बाद उन्होंने पानी साफ करने का घरेलू नुस्खा और एक ओवरहेड टैंक का इस्तेमाल करते हुए एक बिज़नेस प्लान बनाया। ऑब्जरवेंट मात्र नौ रुपए प्रति किलो की कॉस्ट से बनाया गया। इसे सिर्फ दो हफ्तों में एक बार बदलने की जरूरत होती है। प्लान में सुझाव दिया गया कि पानी की टंकी का खर्च गांव की पंचायत और सरकार से मिलने वाले फंड से किया जाए। आखिर में भारत के गांवों में पानी के फ्लोराइड को निकालने के उनके इस प्रोजेक्ट को पांच से कहीं ज्यादा नंबर मिले क्योंकि उन्हें यूके-इंडिया सोशल इनोवेशन चैलेंज में उन्हें 500 पौंड का कैश प्राइज मिला। यह यूके इंडिया सोशल आंत्रप्रेन्योरशिप एजुकेशन नेटवर्क की पहल है। 
उनके प्राजेक्ट का नाम है- प्रोवाइडिंग डिफ्लोराइडेटेड वाटर टू विलेजेस अफेक्टेड बाय फ्लोराइड कन्टेमिनेशन। इसका फोकस है घरेलू वॉटर फिल्टर मुहैया कराना और यही पानी कृषि के काम के लिए भी देना। यूके की संस्था से मिली सराहना के बाद कई सरकारें इसे उपयोग में लाने पर विचार कर रही हैं। छात्रों को यह तो देखना ही चाहिए कि कौन-सा प्रोजेक्ट समाज में बदलाव ला सकता है, बल्कि उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि कैसे इस पर काम किया जाए ताकि समस्याओं का समाधान किया जा सके। इसका नतीजा यह हो कि ऐसा किफायती तरीका ईजाद किया जाए, जिससे समाज के निचले तबके को फायदा हो और छात्रों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के बारे में भी पता होना चाहिए, जिनमें वे भाग ले सकें और अपने काम को मान्यता दिला सकें। 
फंडा यह है कि कॉलेज के प्रोजेक्ट असल में नंबरों के लिए नहीं होते, बल्कि ये शानदार कॅरिअर के नए दरवाजे खोलने के लिए होते हैं। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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