Sunday, August 7, 2016

विडम्बना: हमारे स्कूल क्यों नहीं कर पा रहे हैं 'शिक्षित'

जॉन टेलर गट्टो अमेरिका के प्रतिष्ठित टीचर रहे हैं। उन्हें 1990 में 'न्यू यॉर्क सिटी टीचर ऑफ ईयर' के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए शिक्षा व्यवस्था की जिन समस्याओं को सामने रखा था वो हम यहां आपके सामने रख रहे हैं।
मैंने अपने 25 साल की टीचिंग में हमेशा यह अनुभव किया है कि स्कूल और स्कूलिंग अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
कोई भी इस बात पर अब भरोसा नहीं करता कि साइंस की क्लास में वैज्ञानिक, सिविक्स की क्लास में राजनीतिज्ञ और साहित्य की क्लास में कवि बन रहे हैं। सच तो यह कि स्कूल अब सिर्फ यही सिखा पा रहे हैं कि आदेशों का पालन कैसे किया जाए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हजारों केअरिंग लोग स्कूलों में टीचर, सहायक और प्रशासक के रूप में काम कर रहे हैं, लेकिन उनके व्यक्तिगत योगदान पर संस्थान हावी हो रहे हैं। हालांकि टीचर्स खूब मेहनत करते हैं, लेकिन संस्थान मनोरोगी हो गए हैं। उनमें जमीर नहीं बचा है। स्कूल में घंटी बजती है और क्लास में सभी के बीच कविता लिख रहे युवा को नोटबुक बंद करनी पड़ती है। वह दूसरे सेल में चला जाता है, जहां उसे यह याद करना होता है कि इंसान और बंदर के पूर्वज एक ही थे। 
  • यह दुखद है कि आप ऐसे सिस्टम का हिस्सा हैं जो आपको एक ही सोशल क्लास और एक ही उम्र वर्ग के लोगों के साथ बैठने पर मजबूर करे। व्यवस्था आपको जीवन की विविधता से दूर कर दे। अतीत और भविष्य से भी अलग कर दे। आपका आकलन सिर्फ वर्तमान से करे, जैसा कि टीवी करता है। 
  • यह दुखद है कि आप ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हैं जो आपको अजनबी का कवितापाठ सुनने बिठा दे, जबकि आप इमारत बनाना सीखना चाहते हैं। 
  • यह दुखद है कि आप अपने बच्चों और युवाओं को एक घंटी की आवाज पर रोज एक सेल से दूसरे सेल में जाते देखें। जहां कोई प्राइवेसी नहीं है और यहां तक कि संस्थान आपके घर की सुरक्षा को भेदकर वहां भी पहुंच जाए है और आपसे मांग करता है कि होमवर्क कीजिए। 
तो फिर वो पढ़ना कैसे सीखेंगे? सिर्फ उम्र आधारित सेल नहीं जब बच्चों को पूरा जीवन दिया जाएगा तो वो पढ़ना, लिखना सीखेंगे। और अंकगणित भी आसानी से करेंगे। अगर ये चीजें वाकई जीवन में उपयोगी हैं तो। अमेरिका में जो भी पढ़ता है, लिखता है या जोड़-गुणाभाग करता है उसे ज्यादा सम्मान नहीं मिलता। हम बातें करने वालों का देश हैं, बातुनियों को सबसे ज्यादा भुगतान करते हैं सबसे ज्यादा उन्हीं की प्रशंसा करते हैं। इसलिए हमारे बच्चे भी लगातार बोलते हैं। वो टीवी और स्कूल टीचर्स के पब्लिक मॉडल को फॉलो करते हैं। आज दो संस्थान हमारे बच्चों की जिंदगी को चला रहे हैं- टेलीविजन और स्कूलिंग। और वह भी इसी क्रम में। दोनों ने ही बुद्धि, साहस, संयम और न्याय आधारित दुनिया को सीमित करके रख दिया है। बीती शताब्दियों में बच्चों का समय किसी असली काम, परमार्थ, साहसिक कार्यों में बीतता था। वो ऐसे मार्गदर्शक की खोज करता था, जो वो सिखाए, जो आप सीखना चाहते थे। वक्त पठन-पाठन, मेल-मुलाकात, घर बनाना सीखने जैसे दर्जनों कामों में गुजरता था। जो संपूर्ण मर्द और औरत बनने के लिए जरूरी है। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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