Thursday, June 9, 2016

सेंसर बोर्ड की कैंची में उलझी 'उड़ता पंजाब' के असल मुद्‌दे

जय प्रकाश चौकसे (फिल्म समीक्षक)
शाहिद कपूर अभिनीत 'उड़ता पंजाब' सेन्सर बोर्ड के पंजे में फंस गई है। लगभग अस्सी स्थानों को काटने की सिफारिश है। फिल्म पंजाब के युवा वर्ग के नशीले पदार्थ के इस्तेमाल की पृष्ठभूमि पर बनाई गई है। इस प्रकरण को पंजाब में निकट भविष्य में होने वाले चुनाव से जोड़ा जा रहा है। हम सालभर चुनाव चुनाव खेल खेलते हैं और
देश की ऊर्जा का नाश होता है। कम से कम लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव तो एक साथ करा देना चाहिए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जब हम विदेश से विचार नीतियों का आयात करते हैं और कई बार अनाज तथा टेक्नोलॉजी का भी आयात करते हैं तब चुनाव व्यवस्था के लिए भी एफबीआई या केजीबी की सेवाओं का आयात क्यों नहीं कर लेते? चीन तो अपनी सेना भारत भेजने के लिए हमेशा आतुर रहा है और उसने हमारे पवित्र-पावन हिमालय पर हजारों किलोमीटर की सड़कें भी बना ली हैं। विकास को तथाकथित तौर पर समर्पित हमारी सरकार हिमालय की अंतड़ियों में बनी इन सड़कों को भी अपने विकास का हिस्सा मान रही है। 
बहरहाल, 'उड़ता पंजाब' सेन्सर की पकड़ से मुक्त हो जाएगी, क्योंकि यह सरकार आदतन एक कदम आगे और दो कदम पीछे जाती है। कुछ समय पूर्व श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में सेन्सर पर सुझाव देने के लिए बनी कमेटी अपनी रिपोर्ट दे चुकी है।? सेन्सर बोर्ड में फिल्म देखने के लिए एग्जामिनिंग कमेटी के गठन में सभी धर्मों, भाषाओं और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व होता है गोयाकि सिनेमा की समझ कोई गुण ही नहीं है। गुणवत्ता और काबिलियत को हमने सब क्षेत्रों से खारिज कर दिया है और जैसा चूं चूं का मुरब्बा हमारा गणतंत्र है वैसा ही हमने सभी संस्थाओं को बना दिया है। विगत समय में एग्जामिनिंग कमेटी में सत्ता दल की राजनीतिक विचारधारा का हिमायती होना ही एकमात्र काबिलियत बना दी गई है। इन्हीं लोगों ने छीना है, 'उड़ता पंजाब' का दुपट्‌टा। 
सेन्सर के प्राणहीन नियमों के कारण और जातिवाद के कारण प्राय: फिल्मी पात्रों के सरनेम-जाति फिल्मकार नहीं दिखाता। सेन्सर चाहता है कि फिल्म में घटनाक्रम का स्थान रूरीटेनिया बताया जाए। साहित्य में काल्पनिक भौगोलिक स्थान को रूरीटेनिया कहा जाता है अर्थात जो है ही नहीं है, उसे बताया जाए। यह उस साजिश का हिस्सा है, जिसके तहत भारत को ही रूरीटेनिया बनाया जा रहा है। दशकों पूर्व मेरी बनाई 'कन्हैया' (ओलिवर ट्विस्ट) में अमजद खान बाथ टब में बैठी आशा सचदेव को समझाते हैं कि उस जैसे पेशेवर अपराधी से प्यार करना फिज़ूल है और जाते समय वे तौलिया उसकी ओर फेंक कर जाते हैं। कूपमंडूक सेन्सर ने बाथटब की बातचीत हटा दी और तौलिया फेंकने का शॉट कायम रखा तो दृश्य का अर्थ यह हो गया कि अमजद खान आशा सचदेव के साथ हमबिस्तर होकर उसे तौलिया दे रहे हैं। इस तरह सरल दृश्य को सेन्सर ने अश्लील बना दिया। इसीलिए इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि सेन्सर सदस्य को फिल्म विधा का ज्ञान होना चाहिए। अभी एग्ज़ामिनिंग कमेटी में वे सदस्य हैं, जिन्हें सिनेमा विधा की बारहखड़ी भी नहीं आती। सेन्सर का अध्यक्ष कोई भी हो, मुद्‌दा यह है कि फिल्म को देखने वाली कमेटी के सदस्य कौन हैं। हम गोविंद निहलानी, अज़ीज मिर्जा, दीपा साही, केतन मेहता, सलीम खान, शबाना आज़मी, जूही चावला, तन्वी, मन्नु भंडारी, ममता कालिया, संजय सहाय और मनमोहन शेट्‌टी जैसे लोगों को सेंसर बोर्ड में क्यों शामिल नहीं करते? 
भारत में तत्कालीन हुकूमते बरतानिया ने 1918 में लंदन में जो डाक विभाग के सेन्सर नियम थे, उनमें थोड़ा फेरबदल करके भारत में सेन्सर विधान रचा और फिर 1951 में एसके पाटिल के नेतृत्व में गढ़े फिल्म आयोग की सिफारिशों को लागू किया। आर्थिक उदारवाद के बाद भारत का समाज तेजी से बदला है और उस परिवर्तन गति को नज़रअंदाज करके सारे निर्णय लिए जा रहे हैं। ज्ञातव्य है कि गोविंद निहलानी की सर्वकालिक महान रचना 'तमस' को अदालत कक्ष में देखा गया और उसे दिखाने के आदेश जारी किए गए थे। सत्यमेव जयते के आदर्श की डींग हांकने वाले हुक्मरानों को सत्य से ही डर लगता है, इसलिए संस्थाओं को निर्जीव बनाया गया है। नशीे ड्रग्स की तिजारत नहीं रोककर उस पर बनी फिल्म को रोककर वे समझ रहे हैं कि जनता को नशे से बचा लिया। 

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साभार: भास्कर समाचार 
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