Friday, March 6, 2015

प्रसंगवश: नक़ल की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए दोषी कौन?

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दो दिन से हरियाणा में चल रही बोर्ड परीक्षाओं को लेकर मन में कई तरह के विचारों की उधेड़-बुन चल रही थी। बोर्ड ने इस बार "नक़ल रहित" परीक्षा के संचालन हेतु पूरी व्यवस्था की। बोर्ड ने बच्चों के परीक्षा केंद्र बदलने से लेकर "नक़ल उन्मूलन अभियान" तक हर प्रयास इस दिशा में सकारात्मक तरीके से करने का प्रयास किया। लेकिन ऐसा भी क्या हुआ कि इतना प्रबंध होने के बावजूद परीक्षा के पहले ही दिन परीक्षा प्रणाली कलंकित हो गई। बात कर रहा हूँ 4 मार्च को लीक हुए बारहवीं कक्षा के अंग्रेजी के पर्चे की। 
नक़ल रोकने के इतने प्रयासों के चलते पेपर लीक हो जाना क्या संकेत देता है? इसी सवाल का जवाब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कानों में एक टीवी चैनल की आवाज भी पड़ गई जिस पर इसी विषय पर एक कार्यक्रम चल रहा था। दर्शकों के फ़ोन चैनल वालों के पास आ रहे थे, और हर कॉल पर मेरे मन में बड़ी विचित्र सी भावनाएं उत्पन्न हो रही थीं। विचित्र सा कष्ट अनुभव हो रहा था। एक अध्यापक होते हुए अध्यापक समाज को ही नक़ल जैसे "कुकर्म" का दोषी पाकर और हो भी क्या सकता था? लेकिन स्वयं को गर्वित भी अनुभव कर रहा था कि कम से कम मैं स्वयं इस दोष से मुक्त हूँ। 
अब मेरे अध्यापक मित्र चाहे कुछ भी कहें, कुछ भी सोचें,परन्तु सत्य यही है कि कहीं न कहीं समाज द्वारा अध्यापक समाज पर आरोपित दोष उचित ही है। Post published at www.nareshjangra.blogspot.com नक़ल की प्रवृत्ति मेहनत न करने वाले विद्यार्थियों में अवश्य होती है, यह बात निस्संदेह सत्य है,परन्तु इस प्रवृत्ति को रोकना या बढ़ावा देना केवल अध्यापक के हाथ में है। बहुत से अध्यापक इस बात पर कहेंगे कि अध्यापक नक़ल को बढ़ावा देने में संलिप्त नहीं हैं। लेकिन भाई, ये "पब्लिक" है ना ये सब जानती है।
बारहवीं वाले लीक हुए पर्चे पर ही आ जाइए। वॉटसएप पर या किसी अन्य साधन के माध्यम से पेपर परीक्षा केंद्र से बाहर जाना और वह भी परीक्षा शुरू होने से घंटों पहले। Post published at www.nareshjangra.blogspot.com हालांकि एक व्यक्ति को पुलिस ने पकड़ा है और जांच चल रही है। इस मामले में मूल रूप से दोषी कौन पाया जाएगा ये तो जांच के बाद ही पता लगेगा। परन्तु जैसा मुझे और आप सबको लगता है कि जिस तरीके से परीक्षा से डेढ़ घंटा पहले परचा लीक हुआ तो ये पेपर किसी परीक्षा केंद्र से चला है और परीक्षा केंद्र का नाम आते ही दोषारोपण वाली सुई सीधी केंद्राधीक्षक, ड्यूटी स्टाफ और विद्यालय स्टाफ की तरफ अनायास ही घूम जाती है। अब ये लोग कौन हैं? अध्यापक, अध्यापक और अध्यापक। 
चलिए छोड़िए, हो सकता है ये पेपर केंद्र अधीक्षक के पास आने से पहले किसी ने स्कैन करके रख लिया हो। लेकिन परीक्षा केन्द्रों में क्या चलता है? ये हम अध्यापक भी जानते हैं, और हमसे ज्यादा लोग जानते हैं। लेकिन सब चुप क्यों रहते हैं? क्योंकि उनके बच्चे पास हो जाते हैं और हमारा परिणाम प्रतिशत सुधर जाता है। लेकिन देश की उत्पादकता तो गई न पानी में!
अब एक और "बीमारी" की बात आ जाती है। ये बीमारी है सरकारी स्कूलों में "आधी अधूरी व्यवस्था"। दसवीं या बारहवीं कक्षा को पढ़ाने वाले अध्यापक कहते हैं कि हमारे पास जो बच्चे प्राथमिक विद्यालयों से आते हैं उन्हें कुछ नहीं आता, अगर नक़ल नहीं हुई तो वे फेल हो जाएंगे और हमारा रिकॉर्ड ख़राब हो जाएगा। प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक कहते हैं कि हमें शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कार्य ज्यादा करने होते हैं और ऊपर से शिक्षाधिकार अधिनियम का डंडा कि किसी बच्चे को उसी कक्षा में नहीं रखना। तो अब इस बीमारी का इलाज क्या? Post published at www.nareshjangra.blogspot.com इलाज हमारे पास ही है मित्रो, आप जानते हैं कि कक्षा आठ तक प्रत्येक बच्चे को "सतत समग्र मूल्यांकन (CCE)" करते हुए अगली कक्षा में भेजना है। तो यदि कोई बच्चा सही ढंग से विद्यालय में नहीं आ रहा है और उसके माता-पिता के असहयोग के कारण वह पढाई में कमजोर है तो आप उसे 'A' या 'B' क्यों दे रहे हैं? आप उसे उसके स्तरानुसार ग्रेड देकर नौंवीं कक्षा में भेज दें। अब नौंवीं कक्षा के बारे में "घर की क्लास" वाली धारणा को बदलने की भी जरूरत होगी। अर्थात जो बच्चा जैसा है उसी अनुसार उसे दसवीं कक्षा में भेजें या नौंवीं में रखें।
ऐसा किया तो क्या होगा? दसवीं कक्षा का नामांकन घट जाएगा, घटने दें। परन्तु ये ध्यान रखें कि आपको अगले साल किसी परीक्षा केंद्र पर जाकर ये कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि 'ये हमारे बच्चे हैं, थोड़ा ध्यान रखना'
अध्यापक साथियो, केवल थोड़ा सा स्वयं के साथ कठोर होने की आवश्यकता है। लेकिन हम लोग ईमानदारी से शिक्षण और मूल्यांकन करके इस "नक़ल के कलंक" को मिटा कर अच्छे नागरिकों की पौध तैयार कर सकते हैं।
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