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1919 का जलियांवाला काण्ड - सुनते ही अंग्रेजी हुकूमत की सबसे अधिक अमानवीय तस्वीर उभर कर सामने आ खड़ी होती है। 13 अप्रैल, 1919 की वह दुर्भाग्यशाली शाम जिसे सैंकड़ों हिन्दुस्तानियों के खून से लाल होते हुए उसने अपनी आँखों से देखा था। बीस हजार लोग जमा हुए थे अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में, बिलकुल शान्तिपूर्ण तरीके से सब लोग अपने नेताओं के विचार सुनने के लिए इकट्ठे हुए थे। "रोलेट एक्ट" और डॉo सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध-स्वरुप आयोजित इस सभा में सब कुछ ठीक-ठाक
चल रहा था, लेकिन कुछ ही मिनटों में लगभग 90 अंग्रेज सिपाही बंदूकें और तलवारें लिए बाग़ में आ घुसे। देखते ही देखते ब्रिगेडियर जनरल रेगिनाल्ड डायर (जिसे अमृतसर का कसाई भी कहा जाता है) का इशारा मिलते ही बिना किसी चेतावनी के ही लोगों पर ताबड़-तोड़ गोलियां बरसनी शुरू हो गयीं। लगभग 1650 राउंड गोलियां चलीं और 10 मिनट तक हुई इस फायरिंग को उसने अपनी आँखों से देखा, लगभग 375 निर्दोष लोगों की लाशें बिछती हुई देखने के बाद उसका खून खौल उठा। स्वर्ण मंदिर के पवित्र सरोवर के पानी को हाथ में लेकर उसने मन ही मन प्रण किया कि इस नरसंहार के असली मुजरिम को ठिकाने लगा कर ही दम लेना है। उसे अच्छी तरह पता था कि ये सब पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ'डायर के इशारे पर ही हुआ है। यह लेख आप डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट नरेशजांगड़ा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
बस उसी समय से उसके जीवन का मकसद बन गया "माइकल ओ डायर"। उसी दिन से उस नौजवान ने तैयारी शुरू कर दी, और आखिर में 21 साल के लम्बे होमवर्क के बाद उसने 1940 में जलियांवाला नरसंहार का बदला ले लिया। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं, भारत माँ के बहादुर सपूत शहीद-ए-आज़म सरदार उधम सिंह कम्बोज की। 26 दिसंबर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले में एक छोटे से गाँव शाहपुर कलां में सरदार टहल सिंह कम्बोज के घर में पैदा हुए इस शेर का नाम रखा गया - शेर सिंह। इनके जन्म के 2 साल बाद इनकी माता का और 8 साल बाद पिता का निधन हो गया, और इनके भाई मुक्ता सिंह के साथ इन्हें अमृतसर के सेन्ट्रल खालसा अनाथाश्रम में भेज दिया गया। वहां पर मुक्ता सिंह का नाम साधू सिंह हो गया और शेर सिंह बन गए "उधम सिंह"। 1917 में मुक्ता सिंह की मृत्यु हो गई। उसके बाद 1918 में उधम सिंह ने मैट्रिक पास की और 1919 में अनाथाश्रम छोड़ दिया। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग़ में इनकी ड्यूटी लोगों को पानी पिलाने की थी, लेकिन वहां माइकल ओ डायर के नापाक इरादों के चलते जो मौत का तांडव खेला गया, उसके इनकी रूह को अन्दर तक झकझोर कर रख दिया, और यहाँ से इन्होंने एक नयी जिंदगी की शुरुआत की। डायर से सैंकड़ों हत्याओं का बदला लेना इनका मिशन बन गया। अपने इस खुफिया मिशन के लिए इन्होंने जी जान से काम करना शुरू कर दिया। इनका उद्देश्य था - लन्दन पहुंचना और वहां बैठे डायर को मौत के घाट उतारना। यह लेख आप डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट नरेशजांगड़ा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
1920 में ये अफ्रीका गए, 1921 में नैरोबी (केन्या) पहुंचे। वहां से इन्होंने अमेरिका जाने की कोशिश की लेकिन असफल हो गए, 1924 में भारत वापस आये और इसी साल अमेरिका जा पहुंचे। वहां इन्होंने 'ग़दर पार्टी' ज्वाइन कर ली और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रीय रूप से भाग लेने लगे। ग़दर पार्टी अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों द्वारा बनाई गयी थी, जिसका उद्देश्य भारत से ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकना था। जुलाई 1927 में सरदार भगत सिंह के बुलाने पर उधम सिंह भारत आये। अपने साथ कुछ क्रांतिकारियों के इलावा ये अमेरिका से हथियार और असला भी लेकर आए, जिसके चलते ब्रिटिश पुलिस ने इन्हें 30 अगस्त 1927 को गिरफ्तार कर लिया और पांच साल की जेल की सजा सुना दी गई। उधर भारत में क्रांतिकारी पूरे जोर शोर से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और इधर उधम सिंह इन्तजार कर रहे थे जेल से छूटने का, और फिर अपने मिशन लन्दन को सिरे चढाने का। यह लेख आप डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट नरेशजांगड़ा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
आखिर 23 अक्टूबर 1931 को इन्हें जेल से रिहाई मिली और ये अपने गाँव वापस आ गए। यहाँ भी ब्रिटिश पुलिस इन्हें लगातार परेशान कर रही थी, इसलिए ये अमृतसर चले गए और वहां एक पेंटर की दूकान खोल ली, और अपना नाम बदल कर रख लिया मोहम्मद सिंह आज़ाद। तीन साल तक वहां काम करने के साथ-2 इन्होंने अपने लक्ष्य "डायर" को अपनी दिनचर्या से अलग नहीं होने दिया। लगातार लन्दन पहुंचने की योजना पर काम करते रहे, और फिर मौका पाकर 1934 में जर्मनी, इटली, स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया के रास्ते लन्दन पहुँच गए। वहां इन्होंने अपनी खुद की कार खरीदी और एक रिवाल्वर भी खरीद लिया। इन्हें डायर को मारने के कई मौके मिले, मगर इन्हें सबसे सही और सटीक मौके की तलाश थी - एक ऐसा मौका कि पूरी दुनिया को पता लगे कि सैंकड़ों लोगों के हत्यारे की मौत कैसी होनी चाहिए। यह लेख आप डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट नरेशजांगड़ा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
आखिर वो समय भी आ गया। 13 मार्च, 1940 का दिन था। ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेन्ट्रल एशियन सोसायटी की संयुक्त बैठक 10, कॉक्सटन हाल में रखी गई थी। इस बैठक के मुख्य वक्ताओं में से एक था - माइकल ओ डायर। उधम सिंह का इन्तजार ख़त्म हो गया था। अपनी एक मोटी सी किताब के पन्नों को इन्होंने इस तरीके से काट रखा था कि रिवाल्वर इसमें पूरी तरह आ जाये। किताब में रिवाल्वर छुपाए उधम सिंह ने 10, कॉक्सटन हाल में प्रवेश कर लिया था। वक्तागण भाषण दे रहे थे और अपनी जगहों पर बैठ रहे थे। कुछ देर में डायर की बारी भी आ गयी। जैसे ही डायर मंच की और बढ़ा, उधम सिंह ने रिवाल्वर निकाला और दो गोलियां डायर के सीने में दाग दीं। डायर वहीं ढेर हो गया। बाकी चार गोलियां जेटलैंड (जो उस समय भारत का राज्य सचिव था), लुइस डेन और लार्ड लेमिंगटन को लगी जिससे ये तीनों ज़ख़्मी हो गए। उधम सिंह को वहीं पर पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया। 31 जुलाई 1940 को इंग्लॅण्ड की पेंटोनविले जेल में इन्हें फांसी दे दी गई।
मार्च 1940 में जारी एक बयान में जवाहर लाल नेहरु ने उधम सिंह के इस कार्य को बड़ा मूर्खतापूर्ण बताते हुए कहा कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था, लेकिन बाद में उसी जवाहर लाल नेहरु ने 1962 में कहा कि हमारी आज़ादी के लिए फांसी के फंदे को चूमने वाले उधम सिंह को मैं सलाम करता हूँ। खैर, जो भी हो भारत माँ के इस वीर जवान ने डायर की हत्या करके जो बदला लिया, वो केवल 379 लोगों की मौत का बदला मात्र नहीं था, बल्कि भारत माँ के स्वाभिमान को ललकारने वाले जनरल डायर को और उसके जैसे और नापाक मानसिकता वाले अंग्रेजों के लिए सबक भी था।
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