Sunday, December 25, 2016

महिलाएं क्यों भिन्न परिस्थितियों से निपटने में पुरुषों से ज्यादा माहिर होती हैं?

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
इस शुक्रवार रात को मेरी कुछ ग्लोबल एजुकेशनल लीडर्स से रोचक बहस हुई कि क्यों पेशेवर जीवन में अपने पुरुष साथियों की तुलना में महिलाएं शिकायत कम करती हैं? उसी सुबह मुझे प्रादेशिक शैक्षिक शोध और
प्रौद्योगिकी परिषद के सेमीनार में शामिल होने का मौका मिला। रायपुर के इस सेमीनार में पूरे छत्तीसगढ़ से आए शिक्षकों के सामने फिनलैंड का शिक्षा मॉडल रखा गया। शिक्षा विभाग का प्रयास यह बताने का था कि कैसे फिनलैंड जैसे छोटे देश से भी शिक्षा की अच्छी पद्धतियां सीखी जा सकती हैं, जिसकी आबादी छत्तीसगढ़ से भी कम है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। सबसे अच्छी बात तो यह रही कि फिनलैंड में रहने वाले हेरम्ब कुलकर्णी और उनकी पत्नी शिरीन ने शानदार प्रेजेंटेशन के जरिये बताया कि कैसे क्लासरूम में कम समय व्यतीत कर छात्रों को कुछ विषय खुद ही सीखने के लिए छोड़ा जा सकता है ताकि युवा मन में विषय के प्रति रुचि जागृत की जा सके। 
सेमीनार में हुई चर्चा का निचोड़ यह था कि कैसे शिक्षक नियंत्रक की बजाय मददगार बन सकते हैं। जरा तुलना कीजिए कि भारतीय शिक्षक हर साल 1,232 घंटे और अमेरिकी शिक्षक 1,100 शैक्षिक घंटे कक्षा में गुजारते हैं, जबकि फिनलैंड जैसे छोटे देश के शिक्षक सिर्फ 600 घंटे कक्षा में देते हैं। पोलैंड में तो शिक्षक सिर्फ 550 घंटे देते हैं और यदि आप दुनिया में सबसे कम शैक्षिक घंटे देने वाले शिक्षकों की बात करें तो ये हैं ग्रीस के शिक्षक, जो देते हैं साल में सिर्फ 430 घंटे। पढ़ाने के कम घंटों के बावजूद इन तीनों देशों में सीखने-सिखाने का अद्‌भुत अनुभव हुआ है, जबकि अमेरिका भारत, दोनों देशों में नतीजे इनसे बहुत कमजोर हैं। यह सेमीनार का निष्कर्ष था। 
सेमीनार के अंत में प्रश्नोत्तर सत्र में कुलकर्णी दंपती से पूछा गया कि फिनलैंड के ऊंचे वेतन अत्यधिक सम्मान प्राप्त शिक्षकों से भारत के बहुत कम वेतन पाने वाले शिक्षकों की तुलना करना कितना उचित है? प्रश्न इस बारे में भी पूछे गए कि फिनलैंड की श्रेष्ठतम आधारभूत सुविधाओं की तुलना छत्तीसगढ़ के स्कूलों से कैसे हो सकती है, जिनमें से कुछ में तो पीने के पानी और टॉयलेट की सुविधा तक नहीं है। फिर अध्यापन के उपकरणों की तो बात ही छोड़िए। 
मुझे इन प्रश्नों पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ- ज्यादातर नकारात्मक सवाल पुरुषों और सकारात्मक सवाल महिला शिक्षकों ने किए। दोनों अपने दृष्टिकोणों से सही थे। छत्तीसगढ़ के 2.30 लाख स्कूल शिक्षकों में सिर्फ 33 फीसदी महिलाएं हैं। पुरुष शिक्षक इसलिए शिकायत कर रहे थे,क्योंकि शिक्षक होने के अलावा उनमें से ज्यादातर परिवार के मुखिया भी हैं, जहां उनकी जिम्मेदारी परिवार के सदस्यों की आर्थिक जरूरतें पूरी करना है। वहीं महिलाएं ऊंची अपेक्षाओं वाले पति की अच्छी पत्नी, हमेशा शिकायत करने वाली सास की बहू, उत्पाद मचाने वाले बेटे अड़ियल बेटी की मां की भूमिका निभाने के बाद शिक्षिका बनी थीं। हमारी भारतीय महिला शिक्षिकाओं सहित सभी को दिन में 24 घंटे का वक्त मिलता है। वे यह समय सारी जिम्मेदारियों में व्यवस्थित बांटती हैं, लेकिन शिक्षिका के रूप में अपने दायित्व में कोई कोताही नहीं बरततीं। वे अपने घर के ग्राहकों को हर वक्त सेवा नहीं देतीं। कभी वे पति की उपेक्षा कर बच्चों पर ध्यान देती हैं, कभी बेटे की अनदेखी कर, बेटी पर निकट से गौर करती हैं और कभी इसका उलट भी होता है। इस तरह मां की भूमिका से शिक्षिका की भूमिका में आईं महिला परिस्थितियों की विशेषज्ञ हो जाती है, यही अपने काम के क्षेत्र में ऊंची उत्पादकता लाने में उसकी ताकत बन जाती है। इस कारण वह हमेशा एेसे आइडिया, विधियां और प्रणालियां खोजती रहती है, जो उसके श्रम को घटाकर बेहतर नतीजे दे सकें। 
फंडा यह है कि लोगतब सफल होते हैं जब वे खुद को उभरती परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेते हैं और चुनौतियों से प्रभावी तरीके से निपटते हैं। किसी भी पेशे में महिलाएं यह बेहतर तरीके से करती हैं, क्योंकि जिंदगी में कई भूमिकाएं निभाने से उनमें यह काबिलियत जाती है। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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