एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: इस सोमवार को सविता देवी गर्व से अपने सात साल के बेटे आशीष कुमार को देख रही थीं। वह काफी सतर्कता से हर दुकान पर जा रहा था और अपनी पसंद की चीजें खरीदने के लिए चुन रहा था। उन्होंने पास खड़े
व्यक्ति से कहा,'देखिए कैसे अपनी पसंद का सामान खरीद रहा है, वह भी कार्ड लेकर। वे खुशी रोक नहीं पा रही थीं, क्योंकि आशीष खरीददारी कर रहा था। यह शब्द उनके समुदाय के बच्चों के लिए जैसे कोई बेगानी चीज हो। आशीष ही नहीं कई अन्य बच्चे रांची के करमटोली चौक के पास आईएमए हॉल में खरीदी के लिए इसी तरह घूम रहे थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वहां चिल्ड्रन बाजार सेंटर का आयोजन किया गया था। यहां पुराने कपड़े, पुराने ऊनी कपड़े, पुराने खिलौने और बेकरी के ताज़े खाद्य पदार्थ उपलब्ध थे। एक स्थानीय नॉन प्रॉफिट यूनिट-फालन लीव्ज़ ने यह आयोजन किया था। सेंट जेवियर स्कूल, सेंट एंटोनीज स्कूल, गॉसनर कॉलेज, सेंट जेवियर कॉलेज और मारवाड़ी कॉलेज के 70 छात्र इसमें स्वयंसेवक थे। इन बच्चों को 1000 रुपए के टॉपअप और विशेष पिन वाले डेबिट कार्ड दिए गए थे। अभावग्रस्त बच्चों को मॉडल पॉइंट ऑफ सेल मशीन पर दिखावटी कार्ड स्वाइप करना सिखाया गया था। उन्हें पिन का इस्तेमाल भी सिखाया गया। इससे वे जो चाहें वह खरीद सकते थे। हर बच्चा अधिक से अधिक पांच सामान की खरीदी कर सकता था। कार्ड सिर्फ उस जगह और टॉपअप राशि के लिए ही वेलिड था। अमीरों के लिए अपनी पुरानी चीजें किसी को देना काफी आसान है लेकिन, अगर इसके साथ बच्चों को नई लेस-कैश इकोनॉमी के एक-दो सबक भी मिल जाएं तो यह सोने पर सुहागा हो जाएगा। नौ साल की दिपाशा टिग्गा वहां से अपने नए पुराने-टेडी को सीने से लगाए बाहर आई। उसकी आंखों में चमक थी और उसने कहा,'यह मेरा गुड्डा है... हम खरीदे हैं कार्ड से।' तब आप भी शायद अपने आंसू नहीं रोक पाते। आप शायद समझ भी नहीं पाते कि यह आंसू लेस कैश इकोनॉमी की ओर बच्चों की तैयारी के लिए हैं या उसकी गरीबी के लिए। जब आठ साल की प्रफुल्लित प्रीति कुजुर सुंदर फ्रॉक, गर्म कपड़े और स्वादिष्ट केक से भरी बास्केट लेकर बाहर आई तो कतार में लगे अपने दोस्तों से कहा, 'पहली बार इतना सारा सामान खरीदे हैं, पहली बार ऐसा कार्ड देखा'। मैं दावे से कह सकता हूं, तब आप निश्चित ही अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लेते, ताकि कोई भी आपकी नम आंखें नहीं देख पाए।
स्टोरी 2: तमिलनाडू के कुंभकोणम में राघवन और अरुणा किसानों के गरीब बच्चों के लिए फ्री स्कूल चलाते हैं। उसे हमेशा आने-जाने वालों से पशुओं और प्रोडक्ट्स के सैकड़ों स्टिकर की जरूरत होती। वे इन स्टिकर को लाइब्रेरी की किताबों पर बुकमार्क की तरह चस्पा कर देते। जैसे कार बुक पर कार का स्टिकर, गाय की किताब पर गाय का और मगरमच्छ की किताब पर मगरमच्छ का स्टिकर। बच्चों से कहा जाता कि वे स्टिकर का इस्तेमाल किताब पढ़ते समय बुकमार्क की तरह करें और जब किताब लौटाएं तो स्टिकर अपने लिए रख लें। लेकिन शर्त यह थी कि स्टिकर अगर स्कूल बैग, नोट बुक या उनके किसी और सामान पर चिपका दिखा तो टीचर उस किताब में से उनसे सवाल पूछ सकती है। इसके पीछे मंशा यह है कि बच्चे किताबें पढ़ें और अपने दोस्तों को दिखाएं भी। इससे दो उद्देश्य पूरे हो रहे हैं- जितने स्टिकर उनके स्कूल बैग पर होंगे उतनी ही उनकी प्रशंसा होगी और टीचर्स से उन्हें उतने ही उपहार मिलेंगे। लेकिन इसके लिए पहले अपनी जानकारी की परीक्षा देना होगी।
फंडा यह है कि बिना टीचर के भी पढ़ाने के सैकड़ों तरीके आपके आसपास मौजूद हैं। 2017 में आपका तरीका क्या होगा?
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साभार: भास्कर समाचार
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