Monday, September 26, 2016

जारी है शिक्षा की उपेक्षा: प्रयोजन और पद्धति में नहीं है सामंजस्य

गिरीश्वर मिश्र (कुलपति, महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय)

शिक्षा समाज की एक जरूरी किस्म की मानसिक खुराक हुआ करती है। शिक्षा के लाभार्थी सभी होते हैं। न केवल छात्र और अध्यापक, बल्कि पूरा का पूरा समाज इससे किसी न किसी रूप में जुड़ा होता है। शिक्षा से यह अपेक्षा होती है कि वह समाज की वर्तमान पीढ़ी को भविष्य में आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करे। वह सिर्फ विचार और कौशल ही नहीं देती, बल्कि सोच-विचार करने का तरीका भी मुहैया करती है। वह मस्तिष्क को भी प्रशिक्षित करती है। शिक्षित होकर समाज की आवश्यकता के अनुरूप कर्मी भी तैयार होते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। शैक्षिक अनुभव से मस्तिष्क परिवर्तित होता है और बदलती परिस्थिति के साथ ज्ञान का अनुकूलन होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो आधुनिक भारत में शिक्षा की यात्र में कई पड़ाव और मोड़ आए हैं। औपनिवेशिक काल में स्थापित औपचारिक शिक्षा हमें एक खास तरह की बौद्धिक तैयारी के लिए आरंभ हुई थी। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ अभी भी उसी के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। एक कार्रवाई या कृत्य (रिचुअल) के रूप में उसकी खानापूरी हो रही है। उसकी समीक्षा, विमर्श और समाधान के प्रस्तावों के पुलिंदे धूल खा रहे हैं। शिक्षा के बिना समाज का काम नहीं चलने वाला है, पर अत्यंत महत्वपूर्ण होने पर भी पर शिक्षा पूरे राष्ट्रीय आयोजन में उपेक्षित क्षेत्र ही बना हुआ है। शिक्षा एक व्यापक व्यवस्था के अंग के रूप में जीविका और उसके द्वारा आवश्यकता पूर्ति का साधन भी है। साहित्य, संगीत और कला संस्कृति के हस्ताक्षर होते हैं। शिक्षा में इनके उपयोग से हमारा विस्तार होता है और रुचि के अनुसार विविधता का अवसर बनता है। 

आज क्या सीखना चाहते हैं और क्यों सीखना चाहते हैं, इसका उत्तर आर्थिक उपलब्धि हो चली है। आज समाज कृषि से आगे चलकर उद्योग और सेवा के क्षेत्र की ओर आगे बढ़ रहा है। शिक्षा के बिना समाज का काम नहीं चलने वाला है। एक खास तरह के हस्तक्षेप के रूप में आज शिक्षा में जो बदलाव आएगा वह आगे के समाज का निर्माण करेगा। अच्छे गुणों को विकसित करना और बुरे को बाहर करना ही शिक्षा का ध्येय होता है। चुनने और छांटने का यह काम बचपन में जो सयाने लोग करते हैं उसे धीरे-धीरे बच्चा खुद करने लगता है, पर उम्र बढ़ने के साथ कार्य की प्रकृति बदलने लगती है। सीखने के नए-नए उपाय इजाद होते रहे हैं। विद्यार्थी को आत्म-नियंत्रण और स्वाधीनता की सीख मिलती है। हम अपने बनाए नियमों और कानूनों से बंधने के लिए तैयार होते हैं। यह सब अमूर्त और मूर्त दोनों ही स्तरों पर होता है। भौतिक रूप में यह सब पहले समाज में घटित होता है। हम साङो के कामों द्वारा ऐसा करते हैं और फिर उसे आत्मसात कर लेते हैं। उसे उपयोग में लाकर हम उसके परिणामों का भी अनुभव करते हैं।

सीखने में व्यवहार के परिणाम का आगे होने वाले व्यवहार पर बड़ा गहरा असर पड़ता है। शिक्षा की प्रक्रिया से गुजर कर मनुष्य एक सक्रिय और स्वयं अपने नियामक का रूप ले लेता है। सभ्य समाज में कार्य की गुणवत्ता को पुरस्कृत करने का चलन है। व्यक्ति के माध्यम से हम ज्ञान और कर्म में आई विशिष्टता को पुरस्कृत करते हैं। पर व्यक्ति खुद को उसके साथ जोड़ लेता है और स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगता है। वह कर्म और कर्ता के अंतर को भूल जाता है। वह कर्म की विशिष्टता को अपने ऊपर आरोपित करने लगता है। सीखने का केंद्र कर्म से खिसक कर व्यक्ति के अंदर आने लगता है। व्यक्ति को अपने कर्म का अभिमान हो जाता है। वह भूल जाता है कि व्यक्ति तो कर्म का एक निमित्त है, उपकरण है जैसे और उपकरण या साधन होते हैं, फर्क यह है कि मनुष्य एक विशिष्ट उपकरण है। कर्म द्वारा अर्जित पुरस्कार को भ्रमवश वह स्वार्जित मान बैठने की भूल कर बैठता है। सीखने की क्रिया आंतरिक प्रेरणा द्वारा संचालित होनी चाहिए। सीखना एक संदर्भ में घटित होने वाली प्रक्रिया है। आज सीखने का भौतिक, सामाजिक और तकनीकी परिवेश बड़ी तेजी से बदल रहा है। शैक्षिक जीवन में शासकीय हस्तक्षेप की वृद्धि के साथ शिक्षा की स्वायत्तता घटती गई। इससे शिक्षा में शिथिलता आई। बाहर के भारी नियंत्रण के चलते आंतरिक शक्ति जाती रही। गुणवत्ता के नाम पर विदेशी मानकों की पुष्टि करना ही श्रेयस्कर माना गया। एक र्ढे पर गुणा भाग कर किए शोध को वरीयता दी जाने लगी। उन्हीं के सिद्धांतों की परीक्षा, पुष्टि, परिवर्धन, विस्तार करना ही लक्ष्य बन गया। अर्थात यहां भारत में जो हो रहा है वह पश्चिम यानी यूरो-अमेरिकी देशों में जो हो रहा है उसका सीमित, कमजोर या अच्छा उदाहरण है। ज्ञान की उपयोगिता का प्रश्न ओझल हो जाता है।

अब तकनीक के तीव्र प्रवेश के साथ शिक्षा और ज्ञानार्जन के तौर तरीकों में कई बदलाव आ रहे हैं। वाचिक से लिखित होते हुए हम डिजिटल दुनिया की ओर आगे बढ़ रहे हैं। आज तमाम नए विषयों जैसे पर्यावरण, जीवन कौशल, मानव अधिकार, जेंडर आदि की शिक्षा देने पर बल दिया जा रहा है। अलग-अलग सूचनाओं के रूप में प्राप्त ज्ञान रटने या दोहराने के द्वारा मिलता है और ज्यादातर गैर सृजनात्मक होता है। वास्तविक ज्ञान सिद्धांत के उपयोग से ही उपजता है। दुर्भाग्य से प्रवेश, अध्ययन और परीक्षा की तकनीकी खानापूरी में हम शिक्षा के आशय को भूलते जा रहे है। उसकी गुणवत्ता दांव पर लग रही है। शिक्षा द्वारा ज्ञान का विस्तार एक पेचीदा और व्ययसाध्य उद्यम होता जा रहा है और हम हैं कि उसकी तरफ एक सरलीकृत कामचलाऊ नजरिये के आदी होते जा रहे हैं। समवर्ती सूची में होने के कारण भारत में जहां प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर शिक्षा का आयोजन राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारी योजना के तहत किया जाता है वहीं उच्च शिक्षा को विश्वविद्यालय के स्तर पर आयोजित किया जाता है। इनके सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ अध्ययन की विषयवस्तु, शिक्षण के माध्यम और कार्य दशा को निर्धारित करते हैं। इन दृष्टियों से देश में भिन्नताएं हैं और विषमताएं भी। क्या छोड़ें और क्या पढ़ाएं? किसलिए पढ़ाएं? किसके लिए और कैसे पढ़ाएं? कौन पढ़ाए? ये राजनैतिक ही नहीं नैतिक प्रश्न भी हैं। शिक्षा सिर्फ सरकार की कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबलिटी नहीं है। उसका एक मुख्य कार्य होना चाहिए। प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा के प्रयोजन और पद्धति पर गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता है। 

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साभारजागरण समाचार 
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