एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
इस रविवार दोपहर मैं मुंबई के दादर रेलवे स्टेशन पर था। मुंबई के अप-मार्केट क्षेत्र वर्ली की एक महिला अच्छे कपड़े पहने पंजाब मेल से उतरी। ट्रेन पांच घंटे लेट थी। महिला बाहर निकलने के लिए आगे बढ़ी। हाथ में एक बास्केट थी। आरपीएफ के एक कॉन्सेटेबल ने संदेह होने पर तलाशी ली। बास्केट में स्टार प्रजाति का कछुआ
था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत संरक्षित है। महिला कछुआ साथ ले जाने का कोई कारण नहीं बता पाई, इसलिए इसे जब्त कर लिया गया और मामला वन विभाग को दे दिया गया। संरक्षित वर्ग के प्राणियों को यहां-वहां ले जाने के लिए रेलवे का उपयोग बढ़ता जा रहा है। लोग इन्हें, विशेष रूप से स्टार प्रजाति के कछुए को सौभाग्यसूचक मानते हैं। मान्यता है कि इन्हें रखने से किस्मत खुल जाती है। 10 करोड़ वर्षोंसे मौजूद यह प्रजाति लालची इंसान के हाथ प्रभावित हो रही है। इसे बचाए रखने के लिए मदद की जरूरत है।
इसके दो दिन पहले ही महाराष्ट्र में मुंबई से 230 किलोमीटर दूर रत्नागिरी जिले के तटीय गांव वेलास में कुछ युवक केन की बनी कई बास्केट खोल रहे थे। इनकी वो कई हफ्तों से रक्षा कर रहे थे।
ये युवक उस महिला की तरह बहुत समृद्ध घरों के नहीं थे, जिसे पुलिस ने रेलवे स्टेशन पर पकड़ा था। ऑलिव रेडली प्रजाति के छोटे-छोटे कछुए पानी की ओर नन्हें कदम बढ़ा रहे थे। लहरों से थोड़े संघर्ष के बाद एक बड़ी लहर उन सभी को समुद्र में ले गई। युवा लड़कों ने ऐसे ताली बजाई जैसे रेस में मेडल जीत लिया हो। कई महीनों तक ये युवा वालेन्टियर्स बीच पर गश्त करते रहे हैं कि अंडों को सेने के लिए मादा कछुआ तट पर रही हैं। जब ये मादा कछुआ वापस समुद्र में जाती हैं तो ये लड़के दौड़ पड़ते हैं, उनके घोंसलों को गीदड़ों से बचाने के लिए। घोंसलों को इसी आकार के गड्ढों में शिफ्ट कर दिया जाता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ये वही लड़के हैं जो कभी दौड़कर इन अंडों को ले आते थे, ताकि अगली सुबह इनके ऑमलेट बनाए जा सकें, लेकिन वह 14 साल पुरानी कहानी थी। इन डेढ़ दशकों में तब से एक भी अंडा चुराया नहीं गया है। चिपलून के एनजीओ सह्याद्री निसर्ग मित्रा ने तब वन्य जीवन को बचाने के लिए प्रयास शुरू किए थे। एनजीओ ने घोंसले बचाने के लिए उससे अधिक राशि दी जो अंडे बेचकर मिल जाती थी। इस तरह यहां के लोगों को इन प्रजातियों से प्रेम हो गया। 2006 में पहला टर्टल फेस्टिवल आयोजित किया था। इससे पर्यटकों के जरिए यहीं रहकर नया काम करने का अवसर मिल गया। इसके बाद और लड़के इसमें शामिल हो गए। इन्होंने शिकार से अंडों को बचाने में विशेषता हासिल कर ली है। चूंकि ये कछुए गांव की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का आधार बन गए हैं, इसलिए गांव वाले खतरे में पड़ी इस प्रजाति के प्रति जमकर सुरक्षात्मक हो गए हैं।
वे इन बीचों पर रात को रोशनी नहीं करते, सभी मिलकर बीच को प्लास्टिक के कचरे से मुक्त रखते हैं, यहां तक कि नाविक भी रात के समय समुद्र में नहीं जाते, क्योंकि अंडे देने वाली मादा कछुआ भी रात को यहां आती-जाती है। समुद्री कछुए हमेशा उन्हीं बीचों पर आते हैं, जहां उनका जन्म होता है। यह बहुत लंबी चलने वाली प्रकिया है, क्योंकि कछुए प्रजनन की परिपक्वता में 15 साल की उम्र में पहुंचते हैं। गांव वालों को उम्मीद है कि संरक्षण के पहले साल 2002 में जो अंडे यहां जन्मे थे वही कछुए 2017 में फिर यहां आएंगे। महाराष्ट्र राज्य बायोडाइवर्सिटी बोर्ड भी बीच को बायोडाइवर्सिटी हैरिटेज साइट का दर्जा देने पर मजबूर हो गया है। जल्द ही इसे यह दर्जा आधिकारिक रूप से दे दिया जाएगा। किसी ने व्यग्यपूर्ण कहा है, 'क्या खूब हैं हमारी तरक्की, ज़ीने ( सीढ़ी) तो बना लिए कोई ऊपर नहीं गया'।
फंडा यह है कि सफलता की सीढ़ियां तो हमने बना ली हैं, लेकिन कुछ ही लोग जानते हैं कि परिपक्वता की सीढ़ी पर कैसे चढ़ा जाए।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.