वे 34 साल के थे। खास मध्यम वर्ग के और वैसे ही सपनों वाले। अमीर परिवार से नहीं थे, फिर भी खुश थे कि मुंबई में रह रहे कई अन्य लोगों से बेहतर स्थिति में हैं। मन उन लोगों के लिए परेशान रहता था, जिन्हें जीवन की मूल जरूरतों के लिए भी कुछ नहीं मिल पाता। उन्होंने जितनी कर सकते थे लोगों की मदद करनी शुरू की।
2007 का वर्ष उनके जीवन का निर्णायक मोड़ रहा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कुछ समय के लिए वे एक एनजीओ के संपर्क में आए - नवजीवन भारत सभा और 8 मई 2007 की सुबह मुंबई पुलिस ने उन्हें घर से उठा लिया, क्योंकि एनजीओ पर गुप्त रूप से नक्सलियों की मदद करने का आरोप था। मिडिल क्लास के उस युवक का जीवन बर्बाद हो गया। अगले चार वर्षों में उन पर 11 अलग-अलग मामले दर्ज कर दिए गए। उन्हें गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और शस्त्र अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। राजद्रोह के आरोप भी लगे। पुलिस ने उनसे सवाल करने के कई तरीके आजमाए। पुलिस वे जवाब सुनना चाहती थी जो उसे सही लगते थे। कि वो जवाब जो वे जानते थे। जवाब पाने के लिए उनके हाथ खिड़की की ग्रिल से जमीन से ऊपर कसकर बांध दिए जाते और दो पुलिसकर्मी पहुंच से दूर जमीन पर उनके पैरों को टिकाए रखने को मजबूर करते। इस तरीके में शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं दिखाई देता, लेकिन दर्द बहुत होता है।
जो अधिकारी पहले विनम्र नज़र आते वे भी तुरंत ही मारपीट का सहारा लेने लगते, क्योंकि वे उनसे वही कहलवाना चाहते थे, जो वे सुनना चाहते थे। अधिकारी चाहते थे कि वे माओवादियों से संबंधों को स्वीकार कर लें। उन्हें उन हथियारों के जखीरों की लोकेशन बताए जो नक्सलियों ने छिपा रखे थे, लेकिन वे तो उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं थे। उनका शरीर, जिसने जीवन में पढ़ाई के सिलसिले में माता-पिता और टीचर से एक-दो चांटों से ज्यादा कभी कोई मार सही नहीं थी, इस प्रताड़ना को सह नहीं सका। उनके कानों से खून बहने लगता और जबड़े सूज जाते। उन्हें लगने लगा कि वे कभी जेल से बाहर नहीं सकेंगे और फिर कभी आम लोगों की तरह जीवन नहीं जी सकेंगे। उन्हें प्लास्टिक की थैली में रोटी और दाल दी जाती, जो वे जबड़ों में सूजन के कारण कभी खा नहीं पाते। समय के साथ वे यह सीख गए कि कैसे प्लास्टिक की थैली में दाल में रोटी को भिगोया जाए और खाना खाए जाए। उन्हें बार-बार गिरफ्तार और टॉर्चर किया गया, लेकिन पुलिस उनसे कोई जानकारी हासिल नहीं कर सकी। जो 11 केस उनके खिलाफ दर्ज किए गए थे वे धीरे-धीरे समाप्त होने लगे। 2012 तक वे सभी आरोपों से बरी हो गए, लेकिन जो अनुभव उन्हें पुलिस, कानून और अदालत में हुआ, जीवन के उन अनुभवों को उन्होंने 'कलर ऑफ केज' के रूप में लिखा। वे यहीं रुके नहीं। हिरासत में मिले, दिखाई देने वाले, लेकिन काफी गहरे जख्मों ने उन्हें मासूमों के न्याय के लिए काम करने का रास्ता दिखाया।
बरी होने के बाद उन्होंने सिद्धार्थ लॉ कॉलेज से कानून की डिग्री ली और पिछले साल वकील सुरेश राजेश्वर के साथ काम शुरू किया। पिछले महीने उन्हें महाराष्ट्र और गोवा बार काउंसिल से सनद मिल गई और अब वे मुंबई में क्रिमिनल लॉयर के रूप में केस लड़ सकते हैं। अब वे ठाणे जिले के नए घर में शिफ्ट हो गए हैं और इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स कमिटि फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स संस्था के सदस्य हैं। जब गिरफ्तार हुए और नागपुर जेल में उन्हें कथित रूप से प्रताड़ित किया गया, तब यही संस्था उनकी मददगार बनी थी। मिलिए 42 के अरुण फरेरा से, जो कभी कथित आरोपी के रूप में कोर्ट में खड़े थे और खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश कर रहे थे। आज वे अलग कोर्ट में खड़े हैं और असल निर्दोषों को निर्दोष साबित करने की कोशिश कर रहे हैं।
फंडा यह है कि गिरे हुए फूल कभी फिर नहीं खिल सकते, लेकिन अगर जड़ें मजबूत हों तो नए फूल निश्चित रूप से आएंगे।
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साभार: भास्कर समाचार
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