Sunday, September 18, 2016

सर्वे: ऑफिस में ज्यादा वक्त देने लगे हैं कर्मचारी

जापान की तरह भारत, चीन, ताइवान और दक्षिण कोरिया में भी लोग ऑफिस में ज्यादा समय देने लगे हैं। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि इससे उत्पादकता भी बढ़ रही है। अमेरिका के वर्जीनिया पॉलिटेक्निक इंस्टीट्यूट एंड स्टेट यूनिवर्सिटी में मैनेजमेंट के प्रोफेसर रिचर्ड वॉकुश का कहना है कि उभरती अर्थव्यवस्था होने
की वजह से इन देशों में ऐसा हो रहा है। लेकिन अपने शोध के आधार पर वॉकुश का कहना है कि बात अधिक काम करने की नहीं है। बॉस के ऑफिस छोड़ने से पहले घर चले जाना हर जगह बुरा माना जाता है और लोग बिना काम भी दफ्तर में बैठे रहते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ब्रिटेन के लैंकस्टर यूनिवर्सिटी के स्ट्रेस एक्सपर्ट कैरी कूपर ने भी अपने शोध में पाया है कि अधिकतर देशों में लोग समय से पहले ऑफिस आते हैं और देर तक रुके रहते हैं। कूपर इसे काम में लगे रहते दिखना (फेसटाइम एट वर्क) कहते हैं। वह इसे अनुत्पादक मानते हैं। अधिक समय तक कार्यस्थल में बने रहने की प्रवृत्ति जापान में रही है, हालांकि इसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था भी मजबूत है। दूसरे विश्व युद्ध में पराजय के बाद जापान में ज्यादा से ज्यादा समय तक काम करने का अभियान जैसा चल पड़ा और वहां लोग काम के लती (वकरेहलिक) हो गए। यह एक तरह से वहां की संस्कृति में रच-बस गया। लोग एक महीने में 100 घंटे तक ओवरटाइम करने लगे। लेकिन 1981 के दशक में सरकार को सचेत होना पड़ा क्योंकि कई वरिष्ठ अधिकारियों की ओवरवर्क की वजह से मौत हो गई। वैसे, अब वहां काम करने की यह रफ्तार नहीं है। कई अन्य देशों में लोगों के काम के घंटे बढ़ गए हैं। रोचक यह है कि ऐसे देशों की टॉप 10 देशों में जापान, भारत, चीन, ताइवान, दक्षिण कोरिया वगैरह नहीं हैं। 

जापान में इस तरह काम की धुन में लगे रहने से होने वाली मौत को करोशी कहते हैं। ऐसी मृत्यु पर जापान सरकार परिवार वालों को सालाना 20 हजार डॉलर (लगभग 13 लाख 41 हजार रुपये) देती है जबकि जिस कंपनी में वह अपनी सेवाएं दे रहा होता है, उसे परिवार को 1.6 मिलियन डॉलर (करीब 10 करोड़ 73 लाख 20 हजार रुपये) का भुगतान करना पड़ता है। जापानी श्रम मंत्रलय के अनुसार, 2015 में करोशी से 2310 लोगों की मौत हुई। लेकिन नेशनल डिफेंस काउंसिल फॉर विक्टिम्स ऑफ करोशी का आकलन है कि लगभग दस हजार लोग मरे हैं। यह वहां पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में मरे लोगों की संख्या के बराबर है।

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साभारजागरण समाचार 
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