Wednesday, February 15, 2017

वैलेंटाइन विशेष: 'प्यार' और 'स्वच्छ्ता' केवल एक दिन की बात नहीं

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
मैसूर जानता है 'आई लव यू कहना' और साफ-सफाई रखना किसी एक दिन का काम नहीं हो सकता। इसीलिए मैसूर को लगातार दो वर्षों से स्वच्छ भारत अभियान में देश के सबसे स्वच्छ शहर का दर्जा मिल रहा है। तीसरे
स्वच्छ भारत कॉन्टेस्ट का परिणाम मार्च 2017 के आरंभ में आने की संभावना है। चाहे परम्परागत रूप से सफाई की संस्कृति का मामला हो या उच्च सिविक सेंस का, देश के किसी भी नगरीय प्रशासन का प्रमुख या संबंधित नागरिक मैसूर की सफाई की किताब से सबक ले सकता है। 9,90,900 की आबादी वाला मैसूर कर्नाटक का तीसरा बड़ा जिला है और यहां से 402 टन कचरा निकलता है। स्टाफ का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्होंने कन्नड़ के पोराकर्मिकस (सफाई कर्मचारी) को नगर बंधु पुकारना शुरू कर दिया है। मैनेजमेंट टीम ने जीरो वेस्ट का लक्ष्य रखा है। यानी कचरा बिल्कुल भी जमीन पर नहीं जाना चाहिए। जो भी चीज दोबारा इस्तेमाल हो सकती हो उसे रिसाइकल कर फिर उपयोगी बनाया जाए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। शहर में इस काम से जुड़े सारे खाली पदों को भर दिया गया है और नगर बंधु दो शिफ्टों में सुबह 6.30 से दोपहर 2 बजे तक और सुबह 9 से शाम 6 बजे तक काम करते हैं। पहली शिफ्ट ड्रेनेज और सड़कों की सफाई करती है, जबकि दूसरी शिफ्ट पूरे कचरे को समेटकर रिसाइकलिंग प्लांट तक ले जाती है। हर वार्ड में दो पुश कार्ट के माध्यम से पूरा कचरा एकत्र किया जाता है। हर वार्ड में 5,500 से लेकर 30,000 तक आबादी है। मैसूर में कुल पांच वार्ड हैं। इसके बाद कचरे को शहर के वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट कुंबाराकाप्पाल ले जाया जाता है। यहां शहर का सबसे बड़ा प्लांट 1.5 एकड़ से संचालित है। पाचों वार्डों के कचरे का हर रोज निस्तारण किया जाता है। यह सिर्फ तीन ऑटो ट्रिपर के माध्यम से चल रहा है। प्लांट की क्षमता 10 टन गीले और सूखे कचरे के निस्तारण की है। किसी बड़े मेट्रो शहर के हिसाब से तो यह बहुत छोटा हिस्सा है। लंच के बाद नगर बंधुओं की टीम अपना समय कचरे को अलग करने में लगाती है। 
कुल जमा किए गए कचरे में से औसत कुल 6 टन वजन का ऑर्गेनिक वेस्ट मिलता है। इसे गीले कचरे के हिस्से में डाला जाता है और फिर बाद में इसमें गाय का गोबर मिलाकर खेती के लिए उपयोगी खाद में बदल दिया जाता है। प्लांट में प्राकृतिक रूप से कचरे को खाद में बदलने में दो माह का समय लगता है। बाद में इसे पांच रुपए किलो के हिसाब से किसानों को बेचा जाता है। यह प्रयास पांच साल पहले शुरू हुआ था जो अब लाभ भी कमाने लगा है। सूखा कचरा जैसे बियर बॉटल, प्लास्टिक के बैग, बल्ब, दूध की थैलियां, जूते-चप्पल, सफेद प्लास्टिक के बैग आदि रिसाइकलिंग के लिए अलग छांटे जाते हैं और बाजार की मांग के अनुसार दाम पर बेचे जाते हैं। 
शहर के किसी कॉर्पोरेटर सहित अगर आप किसी भी आधिकारिक सरकारी नंबर पर फोन करेंगे तो आपको जो कॉलर ट्यून सुनाई देगी उसमें मां अपनी छोटी बेटी से कहते सुनाई देती है- बेटा क्या रही हो? लड़की जवाब देती है- मम्मी मैं चॉकलेट खा रही हूं। मां उससे कहती है- बेटा चॉकलेट का रेपर कहां फैकोगी। बेटी जवाब देती है- मैं जानती हूं, कचरा मुझे सूखे कचरे के डस्टबिन में डालना है। फिर बेटी मां की परीक्षा लेने के लिए पूछती है- अब आप बताओ ऑर्गेनिक कचरा कहां डालोगी? मां जवाब देती है- मैं ऑर्गेनिक कचरा गीले कचरे के वेस्टबिन में डालूंगी। यह विचार असल में जागरूकता लाने का प्रयास है, जो लोगों को उच्च स्तर का सिविक सेंस सिखा रहा है। 
फंडा यह है कि जैसे प्यार वेलेंटाइन डे तक सीमित नहीं हो सकता, वैसे ही सफाई को सिर्फ स्वच्छ भारत के नारे तक नहीं रखा जा सकता। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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