Monday, February 6, 2017

दान देकर समाज में फर्क लाने की कोशिश करना गंभीर काम है

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
अच्छे कॉर्पोरेट, अच्छे नागरिकों की तरह उन्होंने भी अपने वेतन का एक हिस्सा मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में कैंसर पीड़ित बच्चों के लिए दान में देना शुरू किया। किंतु अन्य दानदाताओं से वे भिन्न थीं। वे
हम-आप जैसी दानदाता नहीं थीं, जो चेक देकर भूल जाते हैं। वे यह जानना चाहती थीं कि दान में दिए उनके पैसे का कैसे उपयोग होता है बल्कि दान के पैसे का सही उपयोग हो यह पक्का करना अपना कर्तव्य समझती थीं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कुछ साल पहले जब वे मातृत्व अवकाश पर थीं तो उन्होंने अस्पताल में जाकर यह देखने का निश्चय किया कि उनके पैसे का कैसे उपयोग किया जाता है। अस्पताल का चक्कर लगाते हुए उन्हें एक बच्चे के सिर्फ पैर दिखाई दिए, जिन्हें देखकर उन्हें अपनी नवजात बेटी के पैर याद आए। भावुकता के वशिभूत होकर वे उस बच्चे तक पहुंची और पहली बार देखा कि इतना छोटा बच्चा कीमोथैरेपी ले रहा था। उन्होंने संकल्प लिया कि वे इन बच्चों के लिए कुछ और भी करेंगी। उन्होंने अस्पताल की सामाजिक कार्यकर्ता से पूछा कि वे और क्या कर सकती हैं। जवाब सुनकर वे अवाक रह गईं। उस महिला स्वयंसेवी ने कहा, 'इलाज के लिए तो कई लोग दान देते हैं लेकिन, उस पोषक भोजन के लिए दान नहीं देते, जो इस थैरेपी के प्रभावों को झेलने के लिए बहुत जरूरी हैं।' इसका सीधा मतलब यह था कि सिर्फ इलाज के लिए पैसे देना उसे ज़ाया करने के बराबर ही था। 
उन्होंने तत्काल दान का अपना पैसा भोजन के लिए भेजना शुरू कर दिया और जब भी जरूरत होती, स्वयंसेवी उन्हें संदेश भेज देती। जल्दी ही जरूरत उनकी व्यक्तिगत क्षमता से बहुत ज्यादा हो गई। उसके बाद उन्होंने अपने मित्रों, परिचितों से कहना शुरू किया। उन्हें यकीन दिलाया कि बर्थडे और एनिवर्सरी पार्टियों पर खर्च करने की बजाय यहां दान देना ज्यादा जरूरी है। उसी वक्त उन्हें अहसास हुआ कि उनके लिए अकेले इस नई समस्या से निपटना संभव नहीं है। जिस तरह से वे पैसा जुटा रही थीं, उसे कोई औपचारिक रूप देना होगा, तभी मदद को टिकाऊ रूप दिया जा सकेगा। 
इस तरह 2011 में उन्होंने 'द कडल्स फाउंडेशन' शुरू किया और मुंबई के विभिन्न वितरकों के माध्यम से कैंसरग्रस्त बच्चों के लिए न्यूट्रिशनल सप्लीमेंट हासिल करने शुरू किए। फाउंडेशन के बढ़ने के साथ इसने न्यूट्रिशन से जुड़े हर मुद्‌दे पर ध्यान देना शुरू कर दिया। डॉक्टर उन्हें बताते रहते कि उन्हें किस चीज की जरूरत है। मिलिए पुर्नोता दत्ता, आईएसबी हैदराबाद से एमबीए तथा ऑनलाइन मार्केटिंग की एक्सपर्ट। 
किसी भी अन्य प्रोजेक्ट की तरह कडल्स फाउंडेशन रेंगता रहा, गिरा, जख्मी हुआ और फिर धीरे-धीरे चलना सीख गया और फिर तीन साल में तो आत्मविश्वास पूर्वक दौड़ने लगा। आज उनके पास अपने 24 न्यूट्रिशनिस्ट हैं। यह 2016 में नौ शहरों के 17 अस्पतालों के 18 हजार बच्चों को अपनी सेवाएं दे रहा था। मुंबई के ही पांच अस्पतालों में 700 बच्चों को यह सेवा दे रहा है। जब बच्चा चलता हुआ इलाज के लिए आता हैं तो वे कुपोषण के स्तर और कैंसर के प्रकार का आकलन कर लेती हैं, फिर डाइट प्लान बनाती हैं, जो सप्लीमेंटेशन का मिला-जुला स्वरूप होता है। 
दवाइयों के अलावा अन्य जरूरतों की लागत देखते हुए निम्न आयवर्ग के लोग आमतौर पर इलाज को अचानक बंद कर देते हैं। यहीं पर कडल्स का प्रवेश होता है। वह चुने हुए परिवारों को राशन की बास्केट देता है और यह सुनिश्चित करता है कि कम से कम बच्चे का सही वजन बना रहे। इसका इलाज बंद करने की दर पर सीधा प्रभाव पड़ा है, जो 20 फीसदी से घटकर 3 फीसदी से भी नीचे गई है। फाउंडेशन लगातार अपने सदस्य न्यूट्रिशनिस्ट्स को एम्पेथी (समानुभूति) में व्यापक प्रशिक्षण देता रहता है। टाटा मेमोरियल के शिशु कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. बृजेश अरोरा भी न्यूट्रिशन के जुनूनी हैं और वे फाउंडेशन के गाइड और मेंटर हैं। उनके प्रयास रोज करीब बच्चों के पूरे क्लासरूप को बचा लेते हैं। 
कडल्स ने पेड्रियाट्रिक आंकोलॉजी न्यूट्रिशन का कोर्स भी तैयार किया है, जिसे एसएनडीटी यूनिवर्सिटी ने हाल ही में पढ़ाना शुरू किया है। अब अगला कदम 2018 तक देशभर में इलाज ले रहे 80 प्रतिशत बच्चों तक मदद पहुंचाने का है। उसके बाद रक्त संबंधी रोगों और एड्स के लिए काम करने का है। पुर्नोता कछ साल पहले अस्पताल में एक बच्चे का पोषण करती थीं और अब अस्पताल के हर बच्चे को पोषक भोजन देने का प्लान बना रही हैं। 
फंडा यह है कि समाज में फर्क पैदा करने का यह मतलब नहीं है कि सिर्फ दान दे दिया जाए। यदि आप गौर से देखें तो आप को अहसास होगा कि यह बहुत ही गंभीर मामला है। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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