Thursday, February 2, 2017

मैनेजमेंट: बदलती दुनिया में सामने रहे अवसरों को सूंघना सीखें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
करीब चार साल पहले की बात है मुंबई निवासी अलाउद्‌दीन शेख अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए अधिक पैसा कमाने को बेचैन थे। इसलिए हर दिन जब वे अपने उपनगरीय घर से काम की जगह पर जाते तो लोकल ट्रेन में
विभिन्न चीजें बेचते जाते। 14 घंटे शारीरिक मेहनत का काम करने के बाद भी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने में कठिनाई रही थी। घर में पत्नी को 9 वर्षीय बच्ची रोशनी सहित तीन लोगों का पेट भरने के लिए कभी उधार तो कभी दान-धर्म की मदद लेनी पड़ती थी। इस बच्ची को कभी नया खिलौना नहीं मिला। यह हमेशा पड़ोस के किसी धनी परिवार के बच्चे द्वारा दिया गया या चैरिटी में मिला पुराना खिलौना ही होता। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ऐसा इसलिए था, क्योंकि दोनों, शेख और उनकी पत्नी दृष्टिहीन थे और इसलिए उन्हें पीसीओ पर काम करना पड़ता था, मोबाइल फोन आने के बाद, जिसका बिज़नेस कम होते-होते खत्म ही हो गया। कम से कम मुंबई की चमक-धमक वाली दुनिया में तो पीसीओ की यही हकीकत थी। 
अब आंसूओं से भरी यह कहानी कहीं पीछे छूट गई है। तेजी से 2017 में आते हैं। अपने किराये के घर से काम की जगह तक वे उसी ट्रेन में सफर करते हैं लेकिन, उनका सफर आधा रह गया है, क्योंकि उन्होंने काम बदल लिया है और दफ्तर अब घर से थोड़ा पास है। वे रोज आठ घंटे से ज्यादा काम नहीं करते अौर हर माह 20 हजार रुपए का वेतन लाते हैं। उनकी पत्नी अब अपनी बच्ची की खिलौनों वाले किचन के बर्तनों जैसी अजीब मांग पूरी कर सकती थीं, जबकि असली बर्तन तो कुछ समय पहले शेख ट्रेन में बेचा करते थे। इतना ही नहीं नौबत जाए तो उनकी पत्नी कुछ बच्चों की मदद भी कर दिया करती हैं। घर के सारे बिल समय पर चुका दिए जाते हैं। 47 वर्षीय शेख के लिए यह बदलाव किसी परिकथा से कम नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि इन चार वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि इन तीन लोगों की जिंदगी 360 डिग्री बदल गई? उन्होंने खुद का ज्ञान बढ़ाने के लिए कॉलेज में प्रवेश ले लिया! आश्चर्य हुआ? उन्होंने दृष्टिहीनों के लिए खोले गए कॉलेज ऑफ फ्रेंग्रंस में प्रवेश लिया, जिसे 2012 में ब्रिटेन की एक फ्रेंग्रंस कंपनी ने खोला था। यह कंपनी मुंबई में मौजूद दृष्टिहीनों को सुगंधों को पहचानने में माहिर बनाना चाहती थी। कंपनी के लोगों का मानना था कि दृष्टिहीन गंध के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। इसके अलावा अपने काम पर उनका पूरा ध्यान केंद्रित रहता है, वे लक्ष्य से भटकते नहीं और सबसे बड़ी बात निष्पक्ष होते हैं। 
कंपनी के भारतीय एमडी शीतल देसाई और रेणुका थेरगावकर, जो स्थानीय वीडी कॉलेज में कॉस्मेटोलॉजी और परफ्यूमरी विभाग के प्रमुख भी थे, उन्होंने दृष्टिहीनों के लिए एक साल का कोर्स तैयार किया था। इसमें दृष्टिहीन छात्र विभिन्न फलों, चॉकलेट, पिज़्जा आदि का स्वाद महसूस करते और परफ्यूमरी यानी सुगंध के विज्ञान पर ब्रैल में लिखी किताबें पढ़ते। वे आवाज आधारित सॉफ्टवेयर 'जॉज़' का उपयोग करते, जो उन्हें 'फ्रूटी' और 'साइट्रसी' जैसे विशेषण समझने में मदद करता। आज 25 से ज्यादा ऐसे लोग फ्रेगंस इवेल्यूएटर्स या क्वालिटी एग्ज़ीक्यूटिव्ज (गंध) के बतौर काम कर रहे हैं। ये आसानी से गंध की बारीकियों की पहचान कर सकते हैं जैसे क्या गंध फूलों की पंखुड़ियों जैसी है या तने जैसे, सूखी चीज की है गीली, ताज़ी चीज है या बासी, कृत्रिम वस्तु है या चिकित्सा संबंधी कोई सामग्री है। चूंकि वे रंग या पैकेजिंग से प्रभावित नहीं हो सकते, इसलिए गंध की पहचान करने में एकदम सटीक होते हैं। 
अब जब उनकी ट्रेन किसी नाले के पास से गुजरती है तो शेख के मुंह से सहज रूप से निकलता है 'क्रेसलिक' यह बदबूदार शब्द के लिए परफ्यूम इंडस्ट्री में इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है। उन तक पहुंचने वाली हर गंध को पहचान कर उसे सही नाम देने का यह शेख आत्मविश्वास है। काम से लौटकर घर आने वाले शेख के शरीर से भी कोई गंध नहीं आती, क्योंकि वे अपने वातानुकूलित कैबिन में काम करते हैं। सही गंध की पहचान के लिए यह मूलभूत आवश्यकता है। हर शाम जब यह घर का दृष्टिहीन मालिक लौटता है तो उसके परिवार को गुलाब चमेली की खुशनुमा सुगंध मिलती है। 
फंडा यह है कि बदलतीदुनिया में नए अवसर भी सामने रहे हैं। आपको आगे बढ़ने के लिए सही समय पर अवसरों को सूंघने की जरूरत है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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