Monday, December 19, 2016

रामप्रवेश और कृष्ण गौतम: खुद जैसे दृष्टिहीनों का सहारा बनने वालों की दो कहानियां

बहादुरगढ़ के रामप्रवेश और रोहतक के कृष्ण लाल गौतम की कहानी लगभग एक जैसी है। बचपन में ठीक थे। फिर हादसे-बीमारी से आंखों की राेशनी चली गई। कठिन संघर्ष करना पड़ा। हारे नहीं खुद पैरों पर खड़े हुए। फिर अपने जैसे दूसरे लोगों का सहारा बने। पढ़ाते हैं ताकि किसी दृष्टिहीन को दुत्कार झेलनी पड़े। रामप्रवेश बहादुरगढ़ की एक बस्ती में दृष्टिहीनों के लिए मिडिल स्कूल चला रहे हैं। अब तक 140 से ज्यादा बच्चे अागे की पढ़ाई कर नौकरी पा चुके हैं। कृष्णलाल गौतम रोहतक में दृष्टिहीनों के लिए स्कूल चला रहे हैं। उनकी दृष्टिहीन पत्नी भी सहयोग करती हैं। उनका यहां तक का सफर आसान नहीं रहा। पढ़ें उनका संघर्ष उन्हीं की जुबानी... 

कृष्णलाल गौतम (32): बचपन में ही स्माॅल पाक्स ने रोशनी छीन ली। चंडीगढ़ से ब्रेल लिपि से स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की और 2005 में सिविल अस्पताल में रिसेप्शनिस्ट की जॉब मिल गई। दृष्टिहीन गीना देवी से विवाह किया। सरकारी नौकरी और विवाह होने के बाद जिंदगी ठीक चल रही थी, लेकिन उनके मन में दृष्टिहीनों को काबिल बनाने की ललक जगी रही। 
दो वर्ष हरियाणा विकलांग इंसाफ समिति के संचालन में शिव काॅलोनी में 5 दृष्टिहीन बच्चों के साथ दिव्य ज्योति अंध विद्यालय की शुरुआत की। अब यहां पर मुफ्त शिक्षा ग्रहण करने के लिए विभिन्न राज्यों से 25 बच्चे आए हुए हैं। इसमें 15 बच्चों को हाॅस्टल की सुविधा मिली हुई है। मैं अंग्रेजी पढ़ाता हूं। पत्नी समेत तीन और टीचर हैं। आठ हजार रुपए किराए के भवन में चल रहे स्कूल का खर्च मेरी तनख्वाह से ज्यादा है। कभी-कभी नर्सरी में पढ़ रही खुद की बेटी की फीस भरना मुश्किल हो जाता है, फिर भी मैं स्कूल के बच्चों की हर जरूरत पूरी करता हंू।

राम प्रवेश: यूपी के देवरिया जिले का रहने वाला हूं। पिता जी रेलवे में थे, बनारस में तैनात थे। मैं गांव के सरकारी स्कूल में 6वीं में पढ़ता था। एक दिन खेल-खेल में आंखों में चोट लग गई। गांव में देसी इलाज हुआ, जब तक पिता जी गांव से शहर लेकर गए तब तक दोनों आंखों में दिखाई देना बंद हो गया। बनारस के घाट पर घूमने के दौरान एक नेत्रहीन भिखारी को लोगों ने बहुत दुत्कारा था। वह दृश्य हमेशा मन को कचोटता रहता था। मैंने ठान लिया कि किसी के सहारे की जिंदगी नहीं जीनी। 
बनारस में ब्रेल लिपि के एक स्कूल में दाखिला ले लिया। संगीत सीखा, 1997 में 10वीं की। आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाना था घर वालों ने मना किया लेकिन मैं नहीं माना और दिल्ली गया। यहां भटकता रहा। फिर एक स्कूल में संगीत की क्लास लेने लगा। यहीं से जीवन चल निकला। सरकारी स्कूल में दाखिला लिया, 12वीं में 88% अंक आए फिर दिल्ली के रामजस कॉलेज से बीए और 2005 में रोहतक के एमडीयू कॉलेज से बीएड की। बहादुरगढ़ में ब्रेल लिपी और संगीत का ट्यूशन देने लगा। वेतन मिला तो शादी भी हो गई। फिर बहादुरगढ़ के एक दृष्टिहीन स्कूल मेंं नौकरी की। प्रबंधन बेकद्री करता था, मन कचोटा। फिर खुद का स्कूल खोलने की ठानी, झज्जर रोड पर वर्ष 2007 में किराए के मकान में स्कूल खोल दिया। आर्थिक परेशानी होने लगी तो गांव में बंटवारे की जमीन साढ़े चार लाख में बेच दी। बराही रेल फाटक के पास वर्ष 2008 में जमीन खरीदकर स्कूल चलाने लगा। हर साल 20 से 30 बच्चे आते हैं। अब सामाजिक संगठन आर्थिक मदद करते हैं। पत्नी शांति के अलावा तीन बेटियां भी साथ देती हैं। वह सभी देख सकती हैं।