डॉ. भरत झुनझुनवाला (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं तथा आइआइएम बेंगलूरु में प्रोफेसर रह चुके हैं)
मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने उच्च शिक्षा संस्थाओं में अध्यापकों की जवाबदेही स्थापित करने पर जोर दिया है। जावड़ेकर के मंतव्य का स्वागत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी स्किल इंडिया योजना का आधार ही उच्च शिक्षा है। यूनिवर्सिटी में सुधार किए बिना युवाओं को आधुनिक स्किल देना
लगभग असंभव है। लेकिन देश की उच्च शिक्षा का रोग असाध्य हो गया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। अब जवाबदेही स्थापित करने जैसे छुटपुट कदमों से बात नही बनेगी। सर्जरी की जरूरत है। समस्या की जड़ें सरकार द्वारा यूनिवर्सिटी में राजनीतिक नियुक्तियां किए जाने में है। राजनीतिक आधार पर नियुक्त वाइस चांसलरों द्वारा यूनिवर्सिटी के कामकाज में रुचि नहीं ली जाती है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक असोसिएट प्रोफेसर ने बताया कि 22 वर्षो से उनका वेतनमान निर्धारित नहीं किया गया है। वह रिटायर भी हो गए, परंतु वेतनमान तय नहीं हुआ। कई वर्षो तक उन्हें यूनिवर्सिटी में बैठने का कमरा भी उपलब्ध नहीं कराया गया। वाइस चांसलर से कहने पर उत्तर मिला कि मैरी क्यूरी ने भी ऐसी ही परिस्थितियों में शोध किया था। अत: आप सुविधाओं के पीछे न पड़ें और रिसर्च करते रहें। राजनीतिक वाइस चांसलरों की इस बेरुखी से त्रस्त होकर प्रोफेसरों ने यूनियन बनाने का रास्ता अपनाया जिससे उनके न्यायसंगत हितों की रक्षा की जा सके। समय क्रम में यूनियन का दायरा बढ़ता गया और अब हालात ऐसे हैं कि प्रोफेसर पढ़ाना चाहते ही नहीं हैं।
आज आइआइटी में भी छात्र सेल्फ स्टडी अधिक कर रहे है। प्रोफेसर पूर्वनिर्मित स्लाइड शो दिखाकर चले जाते हैं। विद्यार्थियों के संदेहों को दूर करना उनके एजेंडे में नहीं है। इस विकट स्थिति में प्रोफेसरों की जवाबदेही को प्रभावी ढंग से स्थापित करना लोहे के चने चबाना है। जावड़ेकर यदि सच्चे मायने में जवाबदेही स्थापित करेंगे तो शिक्षक माफिया सामने खड़े हो जाएंगे। राजनीतिक नियुक्तियां न करने से भी अब बात नही बनेगी, क्योंकि यूनियन द्वारा प्रोफेशनल वाइस चांसलर को असफल कर दिया जाएगा। इस विकट परिस्थिति की जड़ प्रोफेसरों को स्थाई नौकरी देने में है। मैंने सत्तर के दशक में अमेरिका की यूनिविर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा में उच्च शिक्षा प्राप्त की है। मेरे विभाग में कार्यरत 40 प्रोफेसरों में केवल दो को स्थाई नौकरी दी गई थी। शेष पांच वर्षो के ठेकों पर काम करते थे। चार वर्ष बाद उनके कार्य का मूल्यांकन होता था। तब उनके ठेके के नवीनीकरण पर निर्णय लिया जाता था। ऐसे में प्रोफेसर काम करते थे। बीते समय में अमेरिका में भी उच्च शिक्षा के स्तर का हृास हुआ है। इस समस्या का सामना करने के लिए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ‘रेस टू द टाप’ नाम की योजना लागू की है। इस योजना के अंतर्गत उन सरकारी कालेजों को अतिरिक्त धन एवं सुविधाएं दी जाती हैं जहां प्रोफेसरों का मूल्यांकन विद्यार्थियों द्वारा किया जाता है तथा जहां प्रोफेसर ठेके पर रखे गए हैं। इस प्रणाली को जावड़ेकर को लागू करना चाहिए। नए प्रोफेसरों की नियुक्ति को अनिवार्यत: ठेके पर करना चाहिए। यूनिवर्सिटी को अनुदान तब ही मिलना चाहिए जब प्रोफेसरों का मूल्यांकन विद्यार्थियों द्वारा तथा किसी स्वतंत्र बाहरी संस्था द्वारा कराया जाए।
पूरे संसार में यूनिवर्सिटी व्यवस्था अस्ताचल की ओर बढ़ रही है। अब तक शिक्षण का मूल स्वरूप गुरु-शिष्य परंपरा का था। विद्यार्थियों के सामने प्रोफेसर खड़े होकर लेक्चर देते थे। इंटरनेट ने इस परंपरा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ फीनिक्स में तीन लाख विद्यार्थी ऑनलाइन कोर्स ले रहे हैं। प्रोफेसरों द्वारा अपने ज्ञान को ऑनलाइन प्रोग्राम में डाल दिया जाता है। विद्यार्थी अपने लिए अनुकूल समय में यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर जाकर साफ्टवेयर से शिक्षा प्राप्त करता है। जरूरत के अनुसार यदा कदा ट्यूटोरियल चलाए जाते हैं जहां विद्यार्थियों द्वारा अपने संदेहों को दूर किया जाता है। पूर्व में एक प्रोफेसर द्वारा एक सत्र में 100 विद्याथियों को पढ़ाया जाता था। अब उसी एक प्रोफेसर द्वारा निर्मित साफ्टवेयर से एक लाख विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर सकते है। अमेरिका के ही मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने इलेक्ट्रानिक सर्किट डिजाइन पर एक मुफ्त ऑनलाइन कोर्स प्रारंभ किया। इसमें 154,000 विद्यार्थियों ने दाखिला लिया। इनमें से सात हजार ने कोर्स पूरा किया। कोर्स के प्रमाणपत्र को प्राप्त करने के लिए इनसे मामूली रकम वसूल की गई।
ऑनलाइन तथा लेक्चर द्वारा शिक्षण की प्रथाओं का मिला-जुला मॉडल बन रहा है। वीडियो कांफ्रेंसिंग के द्वारा एक ही प्रोफेसर हजारों विद्यार्थियों को एक साथ ऑनलाइन लेक्चर दे सकता है और प्रश्नोत्तर के माध्यम से संदेह दूर कर सकता है। व्यवस्था की जा सकती है कि विद्यार्थी अपने संदेह को वेबसाइट पर डालें तथा प्रोफेसर उसका निवारण विशेष समय एवं दिन करें। उस समय तमाम विद्यार्थी उस प्रश्न का हल प्राप्त कर सकते हैं। इसमें संशय नहीं है कि इस प्रथा का विस्तार होगा। ऑनलाइन शिक्षा से उच्च शिक्षा की लागत में भी भारी गिरावट आएगी। जैसा ऊपर बताया गया है मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालॉजी ने सर्किट डिजाइन का मुफ्त कोर्स उपलब्ध कराया था। आज आइआइटी की फीस दो लाख रुपया प्रतिवर्ष है। ऑनलाइन कोर्स से यह फीस दस हजार रुपये प्रतिवर्ष रह जाएगी। आइआइटी में दाखिले का झंझट भी कम हो जाएगा। आवेदक ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा दे सकेंगे और दाखिला हासिल कर सकेंगे। शीघ्र ही ऑनलाइन कोर्स के संदेहों को दूर करने को एक समानांतर प्राइवेट ट्यूटोरियल व्यवस्था खड़ी हो जाएगी। इससे स्किल इंडिया का विस्तार होगा।
ऑनलाइन कोर्स को अपना लें तो हमारी यूनिवर्सिटी व्यवस्था में प्रोफेसरों की भारी भरकम फौज की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। विद्यार्थियों का भविष्य वाइस चांसलरों एवं प्रोफेसरों के आपसी द्वंद्व से मुक्त हो जाएगा। अत: जावड़ेकर को चाहिए कि ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा दें। प्रोफेसरों की पदोन्नति को ऑनलाइन कोर्स बनाने से जोड़ दिया जाए। ऑनलाइन शिक्षा के विस्तार को आइआइटी तथा आइआइएम की तर्ज पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ऑनलाइन एजुकेशन की श्रृंखला स्थापित की जाए।
तीसरा कदम विदेशी यूनिवर्सिटियों को प्रवेश देने का उठाना चाहिए। इनके प्रवेश से भारतीय यूनिवर्सिटी को मजबूरन अपनी गुणवत्ता में सुधार लाना होगा। हम देख चुके हैं कि प्राइवेट बैंकों को प्रवेश देने से सरकारी बैंकों के कामकाज में भारी सुधार हुआ है। इन्हें दिखने लगा कि ग्राहक को अच्छी सेवा नहीं देंगे तो बैंक ही बंद हो जाएगा। इसी प्रकार विदेशी यूनिवर्सिटी से डिग्री प्राप्त करने का विकल्प उपलब्ध हो जाएगा तो आइआइटी तथा आइआइएम के प्रोफेसरों पर दबाव बनेगा कि वे विद्याथिर्ंयों को पढ़ाएं। विदेशी यूनिवर्सिटी के भारत में प्रवेश को भारतीय यूनिवर्सिटी के उस देश में प्रवेश से जोड़ देना चाहिए। तब भारत की आइआइटी द्वारा अमेरिकी विद्यार्थियों को डिग्री दी जा सकेगी। सही मायने में प्रोफेसरों की जवाबदेही स्वयं स्थापित हो जाएगी।
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साभार: जागरण समाचार
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