सौजन्य: एन. रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
स्टोरी 1: मध्यप्रदेशके इंदौर से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद वह नौकरी पाने की कोशिश में थे। पढ़ाई में वे काफी होशियार थे और नई दिल्ली में विशेष क्लास लेकर आईएएस की तैयारी कर रहे थे। इस बीच मप्र की राजधानी भोपाल में उन्हें नौकरी मिल गई यहां नियोक्ता कंस्ट्रक्शन साइट पर उनकी डिग्री को अमानक स्तर के कामों के लिए उपयोग करना चाहता था, लेकिन उन्होंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। उन्होंने नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया, लेकिन उनके शुभचिंतक जल्दबाजी में उठाए गए इस कदम के खिलाफ थे। वे आरक्षित वर्ग से आते थे इसलिए उनके दोस्तों, साथियों और रिश्तेदारों ने उन्हें समझाया कि वे कुछ समय के लिए कंपनी में काम करते रहें, जब तक कि उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल जाती, जो आरक्षित वर्ग का होने के कारण लगभग तय ही थी। किंतु वे फैसला कर चुके थे। उन्होंने 'नैतिक रूप से गलत' काम से हर तरह का संबंध खत्म करने की तैयार कर ली थी। फिर वे स्थानीय बच्चों को पढ़ाने लगे। इस काम से उन्हें तसल्ली मिली और एक खुशनुमा सुबह उन्होंने माता-पिता के सामने अपना निश्चय व्यक्त किया कि वे बच्चों के लिए स्कूल खोलेंगे और सरकारी नौकरी मिलने के इंतजार के भरोसे नहीं रहेंगे। सौभाग्य से मप्र के जबलपुर के नजदीक उनके अपने कस्बे गाडरवारा में पिता की एक छोटी सी जमीन थी। गाडरवारा आचार्य रजनीश ओशो की जन्मस्थली है। यहां उन्होंने कुछ कमरे स्कूल के लिए और एक कमरा अपने रहने के लिए बना लिया। मिलिए आदित्य स्कूल के संस्थापक मुकेश मेहरा से। 2001 में उन्होंने आस-पास के 20 गांवों के लोगों से संपर्क किया और सिर्फ 28 छात्रों के साथ एक स्कूल शुरू किया। नरसिंहगढ़ जिला मूल रूप से कृषि प्रधान है और तब वहां शिक्षा के महत्व को कोई समझता नहीं था। वे बच्चों को खुद घर से स्कूल लाते थे, पढ़ाते थे और छोड़ने भी जाते थे। कहा जा सकता है कि वे स्कूल के ड्राइवर से लेकर डाइरेक्टर तक का सारा काम खुद करते थे। उनकी पत्नी मीरा मेहरा ने चपरासी से लेकर प्रिंसिपल तक का काम अपने हाथों में ले रखा था। आज स्कूल में 1000 से ज्यादा बच्चे हैं और एक रिटायर्ड प्रिंसिपल इसके प्रमुख हैं।
स्टोरी2: 'येशाह भाई तारू ग्राहक छे', इसी तरह साथी कुली उन्हें पुकारते, जब उन्हें कोई गुजराती रेल यात्री मिलता और कुलियों से मराठी या हिंदी में बात करने में दिक्कत आती। फिर युवा गुजराती कुली सौदा तय करने की जिम्मेदारी ले लेता। एक या दो साल नहीं पूरे दस साल उन्होंने मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस रेलवे स्टेशन पर कुली के रूप में काम किया। यह 1950-60 का समय था। शादी करने के लिए उन्होंने यह काम छोड़ दिया और एक पॉकेट बुक वितरक कंपनी में चपरासी का काम करने के लिए बेंगलुरू चले गए। कुछ सालों में वे धीरे-धीरे आगे बढ़े और स्टोर मैनेजर बन गए। 1967 में नौकरी छोड़ दी और पान की दुकान जितना छोटा-सा बुक स्टोर खोला। आज उनकी तीसरी पीढ़ी के नीरज शाह सपना बुक स्टोर के मालिक हैं, जिसके कर्नाटक और तमिलनाडु में 14 स्टोर हैं। इसमें 3,50,000 स्क्वैयर फीट का रिटेल प्लेस शामिल है। कंपनी घाना और नाइजीरिया जैसे देशों को किताबें निर्यात करती है और कुछ अफ्रीकी सरकारों के साथ स्कूल की किताबों के लिए भी काम कर रही है। इस साल के अंत तक स्टोर 1.5 करोड़ टाइटल डिजिटल किओस्क के माध्यम से स्टोर्स पर उपलब्ध कराने में सक्षम होगा। 40 हजार स्क्वैयर फीट क्षेत्र के साथ हर स्टोर पर हजारों किताबों के अलावा चॉकलेट से लेकर पानी की बोतल और बेबी प्रोडक्ट से लेकर टॉर्च तक उपलब्ध होंगे।
फंडायह है कि कॅरिअरमें सुखद स्थिति में आने के लिए खुद को थोड़ा समय दीजिए। अगर आपको वह पेशा पसंद नहीं रहा है तो बाहर जाइए और नए की तलाश कीजिए। पुरानी गलतियों पर कभी पछतावा मत कीजिए और उस काम या पेशे से चिपके मत रहिए जो आपको पसंद नहीं है।
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साभार: भास्कर समाचार
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