जितेंद्र सोलंकी (सदस्य,फाइनेंशियल प्लानर्स गिल्ड ऑफ इंडिया)
नोटबंदी के बाद कैशलेस लेन-देन पर लोग ज्यादा से ज्यादा सोचने लगे हैं। कुछ ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से पूरी तरह से कैशलेस इकोनॉमी हो पाने में कई तरह की अड़चनें हैं। लोगों काे इस तरीके पर एकदम भरोसा नहीं
है। ऑनलाइन धोखाधड़ी के अलावा भी कई पहलू हैं, जिन्हेेें सुलझाना बहुत आवश्यक है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। नोटबंदी का उद्देश्य जो भी रहा हो, लेकिन देश कैशलेस इकोनॉमी की ओर बढ़ रहा है। यानी नकदी का लेन-देन धीरे-धीरे कम होगा। इसका एक अर्थ यह भी होगा कि आपकी बैंकों पर निर्भरता बढ़ती जाएगी। भले ही किराने वाले का महीने का बिल हो या पान वाले का पैसा देना हो, सब कार्ड से पेमेंट स्वीकार रहे हैं। गांवों में इसकी लहर इतनी नहीं है, फिर भी इस तरीके ने जोर पकड़ लिया है। हालांकि, इसमें अभी बहुत सारे अवरोध हैं। ऐसे कई सारे फैक्टर हैं, जिनको निपटा लेने के बाद ही पूरी तरह से ये अड़चनें खत्म हो सकेंगी। ऐसी ही कुछ अड़चनें:- डेटासिक्योरिटी: नकद के बिना लेन-देन करने में यह सबसे बड़ी अडचन है। यदि हमारे देश के साइबर कानून को देखें तो वह इतने कठोर नहीं हैं कि जिसका नुकसान हुआ हो, उसकी तत्काल भरपाई हो सके। इस कारण भी लोग कैशलेस पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। कई मामले आए दिन सामने आते रहते हैं, लोगों के साथ धोखा हो जाता है और उनका पैसा तुरंत नहीं मिल पाता है। उसके उलट कई देशों में साइबर कानून बेहद कड़े हैं। यदि किसी के साथ कुछ होता है तो 24-48 घंटे के भीतर विदेशों में उक्त व्यक्ति को अपना पैसा मिल जाता है। जहां तक स्मार्टफोन से भुगतान की बात है तो वह सबसे बड़ी चिंता है। कमजोर कानून के कारण अधिकतर धोखाधड़ी की घटनाएं इसी से संबंधित और इसी पर होते हैं।
- आपसी व्यवहार के मसले- आज पेटीएम देश का सबसे बड़ा ई-वॉलेट बनकर उभरा है, लेकिन भारतीय स्टेट बैंक अपने कस्टमर को उनके अकाउंट का पैसा पेटीएम में ट्रांसफर करने की अनुमति नहीं देता है। एसबीआई का खुद का 'एसबीआई बडी' है। रिजर्व बैंक ने यूपीआई पेश किया है, यह काफी अच्छा है, लेकिन रिजर्व बैंक ने पेमेंट बैंक को इसका हिस्सा नहीं बनाया है। ऐसे में कस्टमर बड़ी दुविधा में है कि वह ई-वॉलेट का सहारा ले या फिर पेमेंट बैंक का या फिर खुद की बैंक के कार्ड का इस्तेमाल भुगतान में करे और खुद को शुल्क के भार से भी कैसे बचाए। इस तरह के मामलों के कारण कैशलेस भुगतान को ज्यादा से ज्यादा लोग कैसे अपना सकेंगे? कैशलेस इकोनॉमी में जो तरीके हैं, उनमें एकीकरण होने पर ग्राहक परेशान हैं।
- बैंकों पर भार: कैशलेस यानी बैंक पर निर्भरता। देश में बैंकिंग सेवाओं का ऑनलाइन भुगतान नेटवर्क इतना अच्छा नहीं है। खासतौर पर असंगठित वर्ग के मजदूर या रोज कमाकर खाने वालों के लिए यह बेहद मुश्किल है। यहां तक कि कारखानों में काम करने वाले मजदूर भी बैंकिंग सेवाओं से अभ्यस्त नहीं हैं। करीब 20 करोड़ खाते जनधन में खुल पाए हैं। इसमें से अधिकतर एक्टिव नहीं कहे जा सकते। लोगों में इसके प्रति जागरूकता नहीं है।
- लागत: कैशलेस के साथ एक और समस्या यह है कि इस तरह का लेन-देन करने पर जो लागत है, वह परेशानी का कारण है। किसी भी दुकान पर जाएंगे तो एक ही वस्तु के दो दाम रहते हैं। किसी वस्तु का दाम दस हजार रुपए हैं तो आपको दस हजार नकद देना होते हैं, लेकिन यदि डेबिट या क्रेडिट कार्ड से भुगतान किया जाना है तो आपको 2 फीसदी अलग से चार्ज देना होगा। बैंक की त्वरित भुगतान की सेवाएं एनईएफटी और आरटीजीएस में भी 5 रुपए से लेकर 20 रुपए तक का शुल्क लगता है। ई- वॉलेट की लोकप्रियता पिछले दिनों बढ़ी है, लेकिन इसमें भी वस्तु की कीमत से अलग 2 से 4 फीसदी तक का शुल्क लगता है। यूपीआई रिजर्व बैंक द्वारा जारी किया गया है और इसमें पैसा बहुत कम लगता है और यह लोगों की जरूरतें आसानी से पूरी कर सकता है, लेकिन इसकी लोकप्रियता उतनी नहीं है, जितनी अन्य भुगतान सुविधाओं की है।
- ढांचागत सुविधा के मामले: एक और अहम अड़चन है ढांचागत मामले। फिलहाल देश में 40 करोड़ स्मार्टफोन यूज़र हैं, लेकिन सभी इस पर ऑनलाइन बैंकिंग नहीं करते हैं। इंटरनेट कनेक्टिविटी है। ऐसे में बैंकों के लेन-देन में ज्यादा समय लग जाता है। तो दुकानदार और ही ग्राहक इस तरह के भगतान के अभ्यस्त हैं। कह सकते हैं कि कैशलेस के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
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साभार: भास्कर समाचार
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