Monday, September 14, 2015

विकास की भाषा बनती हिंदी

ए अरविंदाक्षन
सर्वविदित है कि समूचे भारत में 14 सितंबर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी यानी भारत की राजभाषा के प्रति लोगों के हृदय में एक सशक्त भाषा-दृष्टि विकसित करने में हिंदी दिवस का आयोजन काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। इससे देश-समाज में हिंदी की स्वीकृति काफी बढ़ गई है। अब यह मात्र प्रशासन की भाषा नहीं है। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा हो गई है। वित्त और कारोबार के क्षेत्र में भी हिंदी की जड़ें मजबूत हुई हैं। एक समय ऐसा था, जब राजभाषा हिंदी अंग्रेजी के पीछे चल रही थी, दोयम दर्जे के नागरिक की तरह। कालांतर में वह अंग्रेजी के समकक्ष आ गई और आज यह अंग्रेजी से आगे चल रही है। इतना ही नहीं, भाषा के प्रति हमारी मूल दृष्टि बदल गई है। पहले हम यही सोचते थे कि अंग्रेजी का कोई विकल्प नहीं है। आज वह स्थिति नहीं है। इसे राजभाषा हिंदी का इच्छित विकास कहा जा सकता है, जिसके लिए हिंदी भाषी लोगों की तरह हिंदीतर प्रदेशों के लोगों की भी महती भूमिका है। अक्सर यह सुनने में आया है कि राजभाषा हिंदी का भाषिक स्वरूप प्रीतिप्रद नहीं है। इसका मुख्य कारण अनूदित भाषा की सीमाएं हैं। एक सफल अनुवादक किसी भी साहित्यिक रचना का ऐसा अनुवाद प्रस्तुत कर सकता है कि लगेगा नहीं कि वह अनुवाद है। अच्छा अनुवाद एक प्रकार से अनुसृजन ही है। मगर राजभाषा के अनुवाद के प्रकरण में यह पूरी तरह से संभव नहीं है। उसमें मामूली भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अलावा कई पारिभाषिक शब्दों के भी प्रयोग होते रहते हैं, जिनसे राजभाषा की संप्रेषणीयता में अड़चन आती है। जिस सामग्री में पारिभाषिक शब्दावली की भरमार हो, वह सामान्य पाठक समाज के लिए मुश्किलें उत्पन्न करती है। ऐसे में राजभाषा हिंदी, चाहे वह प्रशासन की भाषा हो, विज्ञान की हो, वित्तीय क्षेत्र की हो, या राजस्व की, कृत्रिम भाषा की श्रेणी में गिनी जाती है। मौटे तौर पर यह देखा गया है कि साहित्यिक बिरादरी के लोग राजभाषा हिंदी को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। इस संदर्भ में यह कहना बहुत जरूरी है कि साहित्यिक भाषा का रचनात्मक सौष्ठव राजभाषा हिंदी को प्राप्त नहीं हो सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि राजभाषा हिंदी कृत्रिम भाषा का नमूना पेश कर रही है। उसकी असंप्रेषणीयता उसमें व्यापक पैमाने पर प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के कारण है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन का पैंसठ-छियासठ वर्षों का इतिहास है। कई प्रकार की कठिनाइयों को पार कर राजभाषा हिंदी ने अपना एक इच्छित स्वरूप प्राप्त किया है। अलग-अलग प्रदेशों के अलग-अलग कार्यालयों में हिंदी दिवस को आनुष्ठानिक या औपचारिक ढंग से मनाया जाता है। अर्थात, उस भाषा के प्रति किसी के मन में आस्था जागृत होती नहीं है। लेकिन हर जगह ऐसा नहीं है। इसके बावजूद राजभाषा हिंदी की प्रोन्नति अवश्य हुई है। हिंदी का एक नया रूप सामने आया है। उसे अधिकाधिक संप्रेषणीय बनाने के कई प्रयास किए जा रहे हैं। इस तरह हिंदी का यह नया रूप भारत की मुख्य भाषा के रूप में उसे स्थान दिलाने में मदद पहुंचा रहा है। शुरुआत में हिंदी दिवस से जुड़े कई कार्यक्रम सांविधानिक आपूर्ति के हेतु चलाए जाते थे। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। राजभाषा के सुगम प्रयोग के लिए बनाए गए प्रौद्योगिकी औजार खासतौर पर काबिल-ए-तारीफ हैं। हिंदी के अनुवाद कार्य को सुगम बनाने के लिए इतने ज्यादा सॉफ्टवेयर आजकल उपलब्ध हैं, जिनके जरिये हिंदी का केवल अनुवाद ही नहीं, बल्कि जहां अंग्रेजी का वर्चस्व था, वहां भी हिंदी का वर्चस्व अनुभव किया जा सकता है। हिंदी की वेबसाइटों के उपभोक्ताओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। किसी भी देश की उन्नति यदि सही दिशा में हो, तो उस देश की मुख्य भाषा की अनदेखी करना मुश्किल है। मतलब यही कि देश के विकास के साथ अपनी भाषा का भी महत्व है। विकास यदि प्रौद्योगिकी क्षेत्र का हो, तो उसमें भाषा का प्रवेश होता है। विकास यदि बिजनेस के क्षेत्र का है, तो ग्लोबल ट्रेंड में भाषा प्रवेश कर जाती है। पूंजी-निवेश के अनुपात में भाषा के उपयोग का अनुपात बढ़ता है। इसलिए हिंदी का विकास भारत के अपने विकास पर निर्भर है। वैश्विक बाजार में अगर भारत की भूमिका बढ़ेगी, तो निश्चित रूप से हिंदी का दायरा भी बढ़ेगा। इस तरह हम अंग्रेजी के दबाव से मुक्त हो सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजकल राजभाषा हिंदी अपनी सीमाओं से बाहर आ चुकी है। वह नई प्रौद्योगिकी, वैश्विक विपणन तंत्र और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की भाषा बन रही है। इस प्रक्रिया को तेज गति देना बेहद जरूरी है। राजभाषा से एक नई वैश्विक भाषा के रूप में हिंदी बदल रही है। यह विकास की भाषा भी बन रही है। इस प्रक्रिया को यदि हम उम्दा तरीके से रचनात्मक बनाएं, तो विश्वभाषा के रूप में हिंदी विश्व मंच पर खड़ी हो सकती है। मगर इसके लिए हमें सबसे पहले भाषायी संकीर्णताओं से मुक्त होना होगा, और देश की अन्य विकसित भाषाओं के विकास के लिए कार्य करना होगा। हिंदी दिवस के इस अवसर पर यह कहना अनुचित नहीं कि राजभाषा के कार्यान्वयन के लिए किए जाने वाले कई कार्यक्रम बहुत पुराने पड़ गए हैं। इनकी प्रासंगिकता नहीं है। इसका कारण यह है कि हम राजभाषा के उस सीमित वृत्त से ऊपर आ चुके हैं। इस भाषा के जरिये हमें अपने देश को आगे ले चलना है। इसे जीवंत भाषा के रूप में बदलने के लिए राजभाषा कार्यान्वयन की प्रविधियां अपर्याप्त हैं। तिमाही बैठकों, उनके लिए रपट बनाने के जड़वत कार्यों, शब्दों तथा पत्रों की गिनती लेने के मूर्खतापूर्ण कार्यों से ऊपर उठकर प्रत्येक कार्यालय, उपक्रम, शोध संस्थान तथा वित्तीय संस्थान को यह तय करना होगा कि हम अपनी इस भाषा का उपयोग दिल से करने जा रहे हैं, जिससे हमारी विकास-यात्रा में कोई रोक-टोक नहीं आएगी। दो-तीन शताब्दियों से उपयोग में रही एक विदेशी भाषा के स्थान पर हम एक देसी भाषा का उपयोग करने जा रहे हैं। हिंदी दिवस समारोह से दरअसल हमें इस ऊर्जा को ग्रहण करना है, अन्यथा हम हिंदी के नाम पर छोटे-मोटे आयोजन करते रहेंगे और देश के लिए भारी नुकसान करेंगे।
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साभारअमर उजाला समाचार 

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