गिरीश्वर मिश्र:
हिंदी को लेकर बात करना अब एक थकाने वाली कवायद है। अब हिंदी के बहुत से हितैषी ‘हिंदी दिवस’ को एक खानापूर्ति से अधिक नहीं मानते। यह एक रस्म अदायगी-सी हो गई है। एक दिन हिंदी की आरती उतारने के नाम पर कुछ वाद-विवाद और लेख प्रतियोगिता, भाषण-प्रवचन और हिंदी के किसी विद्वान की पूजा-अर्चना का आयोजन कुछ क्षणिक खुशी तो ला देता है, पर हिंदी की अपनी चाल-ढाल में कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह यथास्थितिवाद तब है, जब संविधान की व्यवस्था हिंदी के बारे में स्पष्ट है कि वही हमारी अपनी वैधानिक राजभाषा है और अंग्रेजी सह राजभाषा है। पर सच्चाई, जैसा कि हम अंग्रेजी के वर्चस्व से जानते हैं, इसके विपरीत ही है। हिंदी की बदहाल स्थिति को देख उसके कई शुभेच्छु उसे अंग्रेजीमय बनाकर हिंग्लिश द्वारा स्थानापन्न करने और देवनागरी को छोड़ सेक्यूलर किस्म की रोमन लिपि अपनाने की सलाह भी देते हैं। विकास के नाम पर अगर शहर डुबाए जा रहे हैं, तो भाषा कौन-सी चीज है, उसकी बलि का भी वक्त आ सकता है। अगर नई दृष्टि की नजर में हिंदी तरक्की के मार्ग में बाधा है, तो उसे हटा देना ही मुनासिब होगा। यह जरूर है कि उसे खोकर हम क्या-क्या हासिल करेंगे, इस पर थोड़ा गौर कर लेना उपयोगी होगा। यहां एक सवाल यह उठता है कि हिंदी किसके लिए है। हिंदी की बात करना क्या हिंदी के लिए ही है? जब तक हम हिंदी को महज एक भाषा मानेंगे, तब तक वह वही रहेगी और वहीं पर रहेगी, जहां वह इस समय है। पर हमें कुछ वास्तविकताओं को नजरंदाज नहीं करना चाहिए, जो कई सामाजिक-आर्थिक तथ्यों की ओर संकेत करती हैं। हिंदी की शक्ति और सामर्थ्य को समझने और समझाने के लिए इस यथार्थ के परिदृश्य पर नजर डालनी ही होगी। देश में हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या, हिंदी क्षेत्र में आर्थिक विकास की स्थिति, संसाधनों की स्थिति, शिक्षा की स्थिति और कानून तथा व्यवस्था की स्थिति किधर जा रही है, यह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे जनसंख्या बहुल प्रदेशों की वर्तमान स्थिति से समझा जा सकता है। हिंदी पट्टी की विकास की चुनौती और हिंदी की उपेक्षा, दोनों की कथाएं साथ-साथ चलती हैं। चुनाव के दौरान इस हिंदी क्षेत्र की याद आती है, वायदे होते हैं, उसके बाद बात ज्यों की त्यों, धरी की धरी रह जाती है। हिंदी का भी यही हाल है। पर इस तरह का दृष्टिकोण एकांगी और अपर्याप्त तथ्यों पर आधारित है। हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं है। वह कला, संगीत और ज्ञान का भी मूर्तिमान रूप है। वह एक संस्कृति और जीवन शैली की संरक्षक भी है। वह एक धरोहर है और उसे किनारे रख हम देश और समाज को भी सुरक्षित नहीं रख पाएंगे। देश को जोड़ने के लिए इसकी जरूरत है। क्या हम उस स्थिति के लिए तैयार हैं कि हमारी संस्कृति और अस्मिता का दिवाला पिट जाए? हम हिंदी को खोते हुए खुसरो की मुकरियां, रसखान के दोहे, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा के पद, जाने कितने गायकों की गायकी, नृत्य रूप, वाद्य, संगीत सब कुछ खो देंगे। तब बचेगा क्या, जिसे हम अपना कहेंगे? मुझे लगता है कि हिंदी की रक्षा और विकास हिंदी से कहीं ज्यादा उसमें रची-बसी और जीवित संस्कृति और संस्कार के लिए जरूरी है। वह भारत के लिए जरूरी है। वह देश के लिए जरूरी है। हिंदी के जाने पर यह सब भी जाएगा और यह सब लुटाकर हम क्या रहेंगे? तब हम कहां से यह सब मांगकर लाएंगे? कौन देगा, और देगा भी, तो किस कीमत पर? हम खरीद भी लें, तो क्या वह कभी हमारा हो भी सकेगा? तब शायद हम एक नई औपनिवेशिकता का मुकम्मल आरंभ कर सकेंगे। आज ‘स्वदेशी’, ‘स्वाधीनता’, ‘स्वधर्म’, और ‘स्वाध्याय’ जैसे शब्द बहुतों को अप्रासंगिक लगने लगे हैं और अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। हमें अब ‘भूमंडलीकरण’ तथा ‘वैश्वीकरण’ में रस मिलने लगा है। हममें से कुछ को उसमें विश्व ग्राम की छवि दिख रही है या उसका आभास हो रहा है, जो कई लोगों को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की याद दिलाती है। वे अक्सर यह भूल जाते हैं कि जिसने पूरी वसुधा को परिवार समझने की बात की थी, उसकी अपने आपकी या स्व की अवधारणा बड़ी व्यापक थी। हिंदी को छोड़ और उससे मुक्त होकर हम जीवनी शक्ति खो बैठेंगे और वह नहीं रहेंगे, जो हम हैं। हम उन मूल्यों, विचारों और शताब्दियों की उपलब्धि को भी भुला देंगे, जिनसे हमारा अस्तित्व आकार लेता है। हिंदी के बारे में सोचते हुए हमें इस सामाजिक और सांस्कृतिक विस्मरण और अस्मिता के लोप के खतरों पर भी ध्यान देना होगा। हिंदी की शक्ति का स्रोत हिंदी की रागात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक संपदा में है। और यदि सारी उपेक्षाओं के बावजूद वह आज जीवित है, तो इसी कारण हिंदी के इस पक्ष पर ध्यान देना होगा। -म.गां.अं.हिं. विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति
हिंदी को छोड़ और उससे मुक्त होकर हम जीवनी शक्ति खो बैठेंगे, और वह नहीं रहेंगे, जो हम हैं। हम उन मूल्यों, विचारों और शताब्दियों की उपलब्धि को भी भुला देंगे, जिनसे हमारा अस्तित्व आकार लेता है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: अमर उजाला समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE . Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.