इलाहाबाद उच्च
न्यायालय के उत्तर प्रदेश के प्राथमिक स्कूलों की बदहाली को लेकर दिए गए
आदेश ने उस बीमारी की ओर देश का ध्यान खींचा है, जिसके बारे में पता तो
सबको है, पर उसे नासूर बनने से रोकने के लिए कोई तैयार नहीं दिखता। अदालत
ने सूबे के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वह तमाम जनप्रतिनिधियों, सरकारी
कर्मचारियों-अधिकारियों, जजों और जो कोई भी सरकारी खजाने से वेतन ले रहा
है, उनके बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य करें और छह महीने के
भीतर नीति बनाएं। इस आदेश की व्यावहारिकता को लेकर बहस हो सकती है कि आखिर
यह सब इतनी जल्दी कैसे संभव होगा, या इस आदेश को मौलिक अधिकार सहित
संविधानप्रदत्त अन्य अधिकारों के साथ कैसे जोड़कर देखा जाए। बहुत संभव है
कि इसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती देने के कानूनी विकल्प पर भी विचार किया
जा रहा हो। पर सच तो यह है कि अदालत ने नीति नियंताओं और सरकारी
कर्मचारियों को आईना दिखाया है। आखिर यह जवाबदेही कोई क्यों लेने को तैयार
नहीं होता कि सरकारी स्कूलों की दशा दिन-ब-दिन बदतर क्यों होती जा रही है।
और यह स्थिति सिर्फ उत्तर प्रदेश की नहीं है, बल्कि पूरे देश के प्राथमिक
स्कूलों का यही हाल है। 2013-14 की डाइस (डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम
फॉर एजुकेशन) रिपोर्ट बताती है कि किस तरह देश में प्राथमिक स्कूलों का
ढांचा चरमरा गया है। हालत यह है कि देश के प्राथमिक स्कूलों का हर पांचवा
शिक्षक जरूरी योग्यता नहीं रखता। बाकी बुनियादी सुविधाओं की तो बात छोड़ ही
दी जाए। इस मामले में ही देखा जा सकता है कि सरकार शिक्षा मित्रों को सीधे
सहायक शिक्षक बनाना चाहती है, जबकि उनके पास पर्याप्त योग्यता भी नहीं है।
सरकारी स्कूलों की बदहाली के पीछे वे आर्थिक नीतियां भी कम दोषी नहीं,
जिनकी वजह से निजी स्कूलों को सुरक्षित भविष्य की गारंटी मान लिया गया है।
इसके बावजूद शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में यह आदेश मील का पत्थर
साबित हो सकता है, क्योंकि यह सच है कि मंत्री-विधायक हों या कोई और
जनप्रतिनिधि या सरकारी अफसर-कर्मचारी, कोई भी अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में नहीं भेजना चाहता, लिहाजा उनकी दशा सुधारने में उनकी कोई रुचि
नहीं होती।
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साभार: अमर उजाला समाचार
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