साभार: मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन) दैनिक भास्कर
परिस्थिति 1: 43साल की विधवा इंदु
सुरवदे, जिन्हें लोग प्यार से इंदुताई कहते हैं, (मराठी में बड़ी बहन को ताई
कहते हैं) मुंबई के पश्चिमी उपनगर गोरगांव में रहती हैं। परिवार के सात
बच्चों में से कोई भी कभी स्कूल नहीं गया। उनके दिवंगत पति भी पढ़े-लिखे
नहीं थे। उनके पास एक छोटी-सी झोपड़ी है और सभी सरकारी कागजात
जैसे राशन
कार्ड, आधार और वोटर कार्ड भी हैं। लंबे समय से उनके पास सभी दस्तावेज
थे, इसलिए उन्हें लगता था कि जहां तक सरकार की योजनाओं का लाभ लेने का
संबंध है, उनका जीवन सुरक्षित है। 2008 में उनके 18 वर्षीय सबसे बड़े बेटे
विलास की पड़ोस के उपनगर अंधेरी में चलती ट्रेन से गिर जाने से मौत हो गई।
इंदु को रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल की ओर से 2013 में चार लाख रुपए का मुआवजा
मंजूर हुआ, लेकिन धोखाधड़ी की आशंका में प्रशासन ने राशि रोक ली, क्योंकि
गलती से दस्तावेजों में उनके नाम की जगह 'इंदुताई' लिखा हुआ था। चूंकि इंदु
के शपथ पत्र और अन्य दस्तावेजों में नाम मेल नहीं खा रहा था, इसलिए
प्रशासन पैसा स्वीकृत नहीं कर रहा था। यह मामला हमारे देश में कई तरह
के पहचान-पत्रों की कठोर पुरानी तरह की अनिवार्यता से होने वाली समस्या को
रेखांकित करता है। इंदु का नाम पहले वोटर कार्ड में गलत लिखा गया। इसी के
आधार पर उन्होंने दूसरे कार्ड बनवाए। इससे यह स्थिति बनी कि सभी दस्तावेजों
में उनका नाम गलत लिखा गया था, जबकि शपथपत्र में अलग नाम था। फिलहाल वे
अपना नाम दस्तावेजों में सही करवा रही हैं और जितनी राशि उन्हें मुआवजे के
रूप में मिलने वाली है, उसमें से बड़ी राशि संभव है कि इसी काम में खर्च हो
जाए।
परिस्थिति 2: गोवा की वर्तमान यात्रा में मेरी मुलाकात शर्ली
डिसूजा से हुई। वे पिछले दो साल से स्कूल जा रही हैं, जबकि वे अब 53 साल की
हो गई हैं। जाहिर है उन्हें इस बात का गर्व नहीं है कि पढ़ने और लिखने की
बुनियादी शिक्षा ने उसे अपनी मातृ भाषा कोकणी में लिखने और कुछ सरकारी
कागजों पर हस्ताक्षर करने में सक्षम बना दिया है। पहले तो दस्तावेजों पर
उनके अंगूठे का निशान ही होता था, लेकिन वे इस बात से खुश जरूर है कि वह उन
बसों पर लगी शहरों-कस्बों के नामों की तख्तियों को पढ़ लेती है, जो उन्हें
रोजाना की खरीदी और मछली लेने के लिए पखवाड़े में एक बार बाजार जाने के लिए
पकड़नी पड़ती है। पढ़ लेने की अपनी इस नई क्षमता के बारे में आंखों में
चमक लिए वे कहती हैं,' अब मैं बस पर लगी गंतव्य की तख्तियां पढ़ लेती हूं
इसलिए ड्राइवर और कंडक्टर मुझे सम्मान की नजर से देखते हैं। मुझे बसों के
बारे में बुरा व्यवहार करने वाले हाफपैंट पहने छोटे लड़कों और कंडक्टरों से
नहीं पूछना पड़ता'। दस मिनट की उस बातचीत में उसने कम से कम तीन बार जिक्र
किया कि कैसे बिना मदद के वे अकेले राज्य की राजधानी पणजी चली गईं और चार
दिन वहां अकेले रहीं, जैसे उन्होंने अमेरिका की यात्रा कर ली हो। फिलहाल वे अपने पूरे परिवार के लिए सभी सरकारी दस्तावेज जैसे राशन कार्ड,
पेन कार्ड और आधार कार्ड बनवाने के काम में लगी हैं। उनके पिता और पति की
कई एकड़ जमीन है। स्थानीय लैंड माफिया ने जब उनकी 10 एकड़ जमीन पर दस्तावेजों
की धोखाधड़ी कर कब्जा कर लिया तो परिवार को बुनियादी शिक्षा के महत्व का
भान हुआ। परिवार में शर्ली को पढ़ाई करने के लिए कहा गया। परिवार पणजी कोर्ट
में लड़ाई लड़ रहा है और इस सिलसिले में शर्ली को बार-बार वहां जाना पड़ता
है। भारत जब आजाद हुआ था तब सिर्फ 26 विश्वविद्यालय, 650 कॉलेजों में सिर्फ
चार लाख लोग ही शिक्षा के दायरे में थे। सरकारों के उपायों के कारण आज
2015 में 12 साल की उम्र तक के करीब 95 प्रतिशत बच्चे पढ़ने-लिखने की
बुनियादी शिक्षा के दायरे में हैं।
फंडा यह है कि सबसेनिचली पायदान पर
स्थित लोगों को अगर बुनियादी शिक्षा भी दे दी जाए तो वे अपना और अपनी चीजों
का पूरी जिंदगी ध्यान रख सकते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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