Wednesday, August 26, 2015

जीवन दर्शन: देने की आदत भीतर से होती है पैदा

शायद आपने यह पुरानी कहावत सुनी होगी, 'मेरी एक आंख गई तो चलेगा, लेकिन उसकी दोनों आंखें जानी चाहिए' या अंग्रेजी में एक कहावत है जो कहती है, 'एन आई फॉर एन आई केन ब्लाइंड वर्ल्ड' (आंख के बदले आंख लेने से तो एक दिन दुनिया अंधी हो जाएगी)। किंतु आपने यह कहावत नहीं सुनी होगी, 'भले ही मुझे नहीं
दिखता है, कम से कम किसी और को तो दिखना चाहिए', क्योंकि ऐसी कोई कहावत है ही नहीं। लेकिन आप अपने आस-पास देखें तो नई पीढ़ी नई कहावतें बना रही हैं, जो आने वाली सदी में गर्व से कही जाएंगी। 
स्टोरी 1: लखनऊ की 21 साल की कॉलेज छात्रा एकता पांडे ने उक्त नई कहावत बनाने का निश्चय किया है। एकता, शकुंतला मिश्रा नेशनल रिहेबिलिटेशन यूनिवर्सिटी लखनऊ में एमए प्रथम वर्ष की छात्रा है और 12 साल की उम्र तक वह अन्य बच्चों की ही तरह पढ़ाई, खेलकूद के साथ इस खूबसूरत दुनिया को देखती थी। फिर शुरू हुई खतरनाक बीमारी ब्रेन ट्यूमर से उसकी लंबी लड़ाई, जिसने धीरे-धीरे उसकी आंखों की रोशनी छीन ली। इस सप्ताह के आरंभ में जब उसे विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़े में संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया तो उसने अपनी आंखें दान करने की इच्छा इन शब्दों में व्यक्त की : 'मैंने 12 साल यह दुनिया देखी और पिछले एक दशक से देख नहीं पा रही हूं... मुझे इस पीड़ा का गहरा अहसास है, इसलिए अपनी आंखें किसी को उपहार में देना चाहती हूं'। और उसने चिकित्सा टीम से अनुरोध किया कि अगर उसकी आंखों का दान किया जाना संभव हो तो वह कुछ करें नेत्र बैंक में जांच के बाद डॉक्टरों ने बताया कि ऑप्टिक नर्व के क्षतिग्रस्त होने के कारण एकता की नजर गई है, जबकि उसका कॉर्निया एकदम ठीक और सुरक्षित है। इसके बाद उसने अपने शहर के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी के नेत्र बैंक में आंखें दान करने की औपचारिकताएं पूरी कीं और अन्य लोगों को नेत्र दान करने की प्रेरणा देने वाली रोल मॉडल बन गई। उत्तरप्रदेश में कॉर्निया दान के निराशाजनक परिदृश्य में एकता की पहल उल्लेखनीय हैं।
स्टोरी 2:
अमेरिकाके मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी से पढ़ाई कर रहे सुधांशु नाथ मिश्रा को अच्छी तरह याद है कि स्कूल के दिनों में मां उनसे कहा करती थी कि अपनी किताबें हर साल सुरक्षित संभालकर रखो, संभव है कि बाद में यह किसी के काम आए, लेकिन कुछ समय तक किताबें यूं ही बिना इस्तेमाल के रखी रही। 2013 में जब वे ओडिशा में अपने गांव खानदेसाई गए तो उन्होंने देखा कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के पास अच्छी किताबें नहीं हैं और इस वजह से प्रतियोगी परीक्षाओं में उनके प्रदर्शन पर बुरा असर हो रहा है। एक विचार उनके दिमाग में कौंधा कि शहरों में छात्रों से किताबें एकत्र की जाए और गांवों के वंचितों के बीच इन्हें वितरित किया जाए।  हर साल छुट्‌टी में वे भारत आते हैं और अभियान के तहत रामकृष्ण मिशन जैसी संस्था के सहयोग से 16 लाख रुपए मूल्य की 8500 किताबें 25 हजार आदिवासी छात्रों के बीच बांट चुके हैं। सबसे महंगी किताबें वे प्रतिष्ठित स्कूलों और कॉलेजों के शिक्षकों और छात्रों से इस नेक काम के लिए एकत्र कर रहे हैं। बेंगलुरू की 69 झोपड़पट्‌टियों और अनाथालयों के बच्चे इससे लाभान्वित हुए हैं। छात्रों का मानना है कि अच्छी किताबें मिलने से गरीब बच्चों के अच्छे कॅरिअर की संभावनाओं को बढ़ावा मिलेगा, जिनको अब तक पैसे और सुविधाओं की कमी के कारण नुकसान उठाना पड़ा है।  19 साल के सुधांशु अपने तीन दोस्तों के साथ काम कर रहे हैं और अपनी छुट‌्‌टियां देश के वंचित बच्चों के बीच किताबें बांटने में बिता रहे हैं। वे और उनके दोस्त 'शेयर योर बुक्स' अभियान चला रहे हैं और आज उन्हें ओडिशा के कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस, नई दिल्ली में गूंज और बेंगलुरू में परिक्रमा ह्यूमिनिटी जैसे स्थापित एनजीओ का सहयोग मिल रहा है। फंडा यह है कि नई पीढ़ी आत्म जागृति से प्रेरित होकर अधिक उदार होती जा रही है और देने की प्रवृत्ति उनमें रही है। निश्चित रूप से यह कार्य वे खुद को गहराई से समझे बिना नहींकर रहे हैं। 
साभार: भास्कर समाचार 
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