इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हाल के फैसले पर समाज के विभिन्न तबकों की
मिश्रित प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक हैं। उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार
के मुख्य सचिव से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि सरकारी कर्मचारी,
निर्वाचित जनप्रतिनिधि, न्यायपालिका के सदस्य और वे सभी, जिन्हें सरकारी
खजाने से वेतन और लाभ मिलता है, अपने बच्चों को पढ़ने के लिए राज्य के
सरकारी विद्यालयों में भेजें। इस फैसले का स्वागत
किया जाना चाहिए और इसे
केवल एक राज्य तक सीमित न रखकर राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के प्रयास होने
चाहिए। इस बात में दो राय नहीं कि सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता पर
प्रश्न उठते रहे हैं। भवन का अभाव, आधारभूत सुविधाओं की कमी और
विद्यार्थियों की संख्या के मुकाबले शिक्षकों की कम संख्या आदि के कारण
सरकारी विद्यालयों के प्रति समाज के हर तबके में चिंता है। आज निम्न आय
वर्ग का व्यक्ति भी अपनी सामथ्र्य के हिसाब से अपने बच्चों को प्राइवेट
विद्यालय में शिक्षा दिलाने की लालसा रखता है। पड़ोस में सरकारी स्कूल होते
हुए भी लोग दूरदराज के प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने
के लिए दौड़धूप करते हैं, प्रभावी वर्ग से सिफारिश करने की मिन्नतें करते
हैं। ठेठ हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों में भी ‘पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूल’
की ‘इंग्लिश मीडियम शिक्षा’ के प्रति अतिशय लगाव है। यह चिंता गहरी होती जा
रही है। यह सच है कि निजीकरण के बाद देश में प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आई
है। शिक्षा का तेजी से व्यावसायीकरण हुआ है, किंतु मुनाफेके उद्देश्य से
चलाए जाने वाले शिक्षण संस्थान कभी भी शिक्षा के लक्ष्य को पूरा नहीं कर
सकते। देश के कई महानगरों में ऐसे भी निजी विद्यालय हैं, जो पूर्णत:
वातानुकूलित हैं। विद्यार्थियों के मध्याह्न् का भोजन या अल्पाहार पंच
सितारा होटलों से आता है। बाल विकास की प्रारंभिक अवस्था में ही जब
संस्कारों में भिन्नता होगी तो समाज में विषमता तो आएगी ही। पिछली संप्रग
सरकार ने ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून तो बनाया, किंतु इस बात की चिंता नहीं
की कि शिक्षा सर्वसुलभ हो। देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां प्राथमिक
विद्यालय तक नहीं हैं। बच्चों को लंबी दूरी तय कर पास के गांव या शहर में
स्थित विद्यालयों में जाना पड़ता है। भवन नहीं होने के कारण कहीं पेड़ की
छाया में ही क्लास लगाई जाती है। एक ही शिक्षक पर कई विषयों को पढ़ाने का
भार होता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य में एक लाख चालीस हजार
जूनियर और दो लाख 70 हजार सीनियर स्कूल शिक्षकों की कमी पर भी कड़ी टिप्पणी
की है। कई राज्यों की यही कहानी है। पिछले दिनों राष्ट्रीय मानवाधिकार
आयोग ने दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव से सरकारी स्कूलों की बदहाली पर
जवाब-तलब किया है। आज से 40-50 साल पहले, एकाध अपवाद को छोड़ दें तो
अभिभावक सरकारी विद्यालयों में ही अपने बच्चों का दाखिला कराते थे। अच्छी
शिक्षा थी, शिक्षक भी शिक्षण को धर्म समझते थे। परिवार के बाद विद्यालय ही
बच्चों में संस्कार डालते थे। व्यक्ति को उसकी अपनी और शेष समाज की पहचान
करवाना, एक श्रेष्ठ मानव के रूप में उसका विकास, संघर्षमय जीवन में अपने
लिए स्थान बना पाना, व्यक्ति के अंदर उसकी प्रतिभा का विकास कर जीवनयापन
योग्य बनाना शिक्षा का उद्देश्य है, किंतु शिक्षा का जबसे व्यवसायीकरण हुआ
है, हम उस लक्ष्य से भटक गए हैं। आज की तिथि में सरकारी विद्यालयों के
शिक्षकों का वेतनमान किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। फिर भी शिक्षक क्लास
में उतना ध्यान नहीं देते। विद्यार्थी प्राइवेट ट्यूशन के लिए उनके घर आए,
उनकी चिंता इसी पर टिकी होती है। विद्यालयों में अच्छी शिक्षा मिले, यह
सुनिश्चित करना व्यवस्था का हिस्सा है, किंतु सरकारी बाबुओं की संवेदनहीनता
के कारण विकृतियां बढ़ी हैं। उच्च न्यायालय के इस निर्णय का यदि पालन होता
है तो निस्संदेह जिन लोगों के ऊपर व्यवस्था की जिम्मेदारी है, उनमें
सरकारी स्कूलों को लेकर जो निस्पृह भाव है, वह दूर होगा। अभी उनके बच्चे
अधिकांशत: महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी स्कूलों में व्याप्त
दुर्दशा से उनका कोई लेना-देना ही नहीं है। जब उनके बच्चे भी सरकारी
स्कूलों में पढ़ेंगे, तब वे स्वयं भी पहल करेंगे। 1सरकारी स्कूलों में
बुनियादी सुविधाओं के साथ समस्या शिक्षा पद्धति को लेकर भी है। जिस शिक्षा
पद्धति का हम अनुकरण कर रहे हैं, वह अंग्रेजों का बनाया हुआ है। उनका
उद्देश्य बेहतर और सभ्य नागरिक बनाना नहीं था। अपने उपनिवेश के लिए
शिक्षित, किंतु ब्रितानी हुकुमतपरस्त दुभाषिए पैदा करना उनका उद्देश्य था।
भारत में ‘बौद्धिक ब्रितानी उपनिवेश’ लार्ड मैकाले ने आंग्ल शिक्षा पद्धति
के द्वारा स्थापित की थी। 12 अक्टूबर, 1836 को लार्ड मैकाले ने अपनी माता
को पत्र में लिखा था, ‘हमारी अंग्रेजी पाठशालाएं दिन प्रतिदिन आश्चर्यजनक
रूप से प्रगति कर रही हैं। अकेले हुगली नगर में ही 1400 बालक अंग्रेजी सीख
रहे हैं। इस शिक्षा का प्रभाव भी अत्यंत चमत्कारपूर्ण हो रहा है। मेरा यह
दृढ़ विश्वास है कि यदि यह शिक्षा सुचारू रूप में जारी रही तो तीस वर्ष के
बाद बंगाल में एक भी मूर्तिपूजक शेष नहीं बचेगा।’
आजादी के बाद
परिस्थितियां बदलनी चाहिए थीं, किंतु हमने उसी शिक्षा पद्धति को गले लगाए
रखा। आजादी के बाद कम्युनिस्ट शिक्षाविदों ने पाठ्यक्रमों को इस तरह तैयार
किया कि उससे राष्ट्रीय गौरव से जुड़ी बातें या तो बाहर कर दी गईं या
उन्हें विकृत कर दिया गया। इस शिक्षा पद्धति ने जहां एक ओर ऐसी पीढ़ी को
विकसित किया है, जो इस देश की कालजयी सनातनी संस्कृति और गौरव से कटी हुई
है और अपने अतीत से जुड़ने में हीनग्रंथि पाले बैठी है, वहीं इस शिक्षा
पद्धति के कारण एक ऐसी फौज भी तैयार हुई है, जो न केवल बेरोजगार है, बल्कि
रोजगार के योग्य भी नहीं है। शिक्षा नीति ऐसी हो, जो पात्रता दे, इस
प्रतिस्पर्धात्मक युग में आजीविका कमाने की क्षमता दे। त्रसदी यह है कि साठ
साल से अधिक गुजर जाने के बाद भी देश की मूलभूत शिक्षा नीति रोजगारोन्मुख
नहीं है। समाज के एक वर्ग में व्याप्त बेरोजगारी और पिछड़ेपन के लिए
सेक्युलरिस्टों के दोहरे मापदंड भी कसूरवार हैं। वोट बैंक की राजनीति के
लिए मदरसा शिक्षा को बढ़ावा देकर क्या समाज के एक वर्ग को मुख्यधारा से
पीछे धकेलने का काम नहीं हो रहा है? तुष्टीकरण के नाम पर मदरसा शिक्षा को
देश की मुख्यधारा वाली शिक्षा के समकक्ष लाना कहां तक उचित है? जहां तक
दीनी तालीम की बात है, मदरसों के प्रति किसी को कोई शिकायत नहीं है। किंतु
प्रतिस्पर्धा के इस दौर में केवल वेद-पुराण, कुरान-हदीस या बाइबल की शिक्षा
देकर हम कैसी पीढ़ी विकसित करना चाहते हैं?
देश में व्याप्त कई
व्याधियों-बेरोजगारी, अलग-अलग समुदायों में सामंजस्य और एकता का अभाव,
देशभक्ति की भावना की कमी और हममें से अधिकांश में अच्छे नागरिक होने के
गुणों के पतन का एक ही हल है- देश की शिक्षा नीति में सुधार। इस संदर्भ में
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मील का पत्थर है।
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साभार: जागरण
समाचार
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