Saturday, December 10, 2016

पेरेंटिंग टिप्स: बच्चों को स्टाइलिश बनाना है तो उन्हें साहित्य से जोड़ें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
मैं हाल ही में मुंबई लिटरेचर फेस्टिवल में गया था, जिसमें रामचंद्र गुहा और देवदत्त पटनायक से लेकर हिंदी सिने जगत के करण जौहर तक रचनात्मक जगत के कई दिग्गजों ने सोच-विचार के लिए बहुत-सी सामग्री दी।
तीन दिवसीय साहित्य उत्सव का सबसे अच्छा कार्यक्रम था गुलजार का सरल हिंदी में रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का सस्वर पाठ। इन्हें श्रेया घोषाल और संगीत निर्देशक शांतनू ने गाया भी। संयोग से शांतनू ने तो इन्हें संगीत भी दिया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। बांद्रा के मेहबूब स्टूडियो में यह उत्सव हर साल होता है। इस बार एक खास बात मेरे ध्यान में यह आई कि हिंदी भाषा और साहित्य से लगाव रखने वाले कुछ ही बच्चे थे, जो वहां बैठकर काव्य-पाठ और गीत सुन रहे थे, जबकि उन्हीं के उम्र के सैंकड़ों बच्चे खुले सभाग्रह में वहां आने वाले गणमान्य लोगों के स्टाइल स्टैटमेंट पर यानी खुद को प्रस्तुत करने की शैली पर मुग्ध हुए जा रहे थे। सीधे शब्दों में कहें तो ज्यादा बच्चे वहां हो रही बौद्धिक चर्चा, काव्य गीतों का लुत्फ उठाने की बजाय मेहमानों का बाहरी ग्लैमर देखने में व्यस्त थे। 
मैंने जब कम उम्र के इन श्रोताओं के विरोधाभास को ध्यान में लाकर कहा कि काश कोई सिर्फ बच्चों के लिए लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित करता ताकि हमें बेहतर भावी पीढ़ी मिलती तो मेरे मित्र ने तत्काल कहा कि कर्नाटक के धारवाड़ निवासी डॉ. आनंद पाटिल बरसों से यह कर रहे हैं। पाटिल ने बच्चों में साहित्य के लिए रुझान पैदा करने के लिए 24 साल पहले यह अभियान शुरू किया था। ऑल इंडिया रेडियो में केंद्र निदेशक के पद से पिछले साल रिटायर होने के बाद वे पूरा वक्त बच्चों के साहित्य को दे रहे हैं और उनका साहित्योत्सव हर साल कर्नाटक के किसी क्षेत्र में होता है, जिसमें ढेर सारी गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। निर्धारित तिथि के एक माह पहले पाटिल बहुत सारी किताबें बच्चों में बांटते हैं। 
इकसठ वर्षीय पाटिल का किताबें चुनने का तरीका बहुत सरल प्रभावशाली है। वे साहित्यिक मूल्य रखने वाली किसी भी भाषा की किताबों को छांट लेते हैं, उन्हें खरीदते हैं और उन्हें उस भाषा के स्कूली बच्चों में बांट देते हैं। मामला यहीं खत्म नहीं होता। वे बार-बार उन बच्चों से मिलकर उनकी राय मांगते हैं, किताब की व्याख्या करने को कहते हैं और इस तरह किताब की उनकी समझ पर निगाह रखते हैं। ज्यादातर बच्चे हाईस्कूल के होते हैं। इस प्रक्रिया में वे विशेष रुचि रखने वाले बच्चों की पहचान कर लेते हैं तथा उन्हें और किताबें मदद मुहैया कराते हैं। फेस्टिवल में उन्हीं पुस्तकों पर चर्चा आयोजित होती है और कई बार उनमंें उन किताबों के लेखक भी मौजूद होते हैं। कहानी कहने का 'कथाकथन' नामक कार्यक्रम आयोजित होता है, जिसमें चुने हुए छात्र अपनी पसंद की कहानी स्थानीय भाषा में दिलचस्प तरीके से सुनाते हैं और फिर उन पर चर्चा होती है। 
बड़े लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार साहब के कार्यक्रम की तरह, वे भी रंगमंच के छात्र कलाकारों के कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जो काव्य पाठ करते हैं। बच्चों से संबंधित गतिविधियों में पेंटिंग स्पर्द्धा भी शामिल होती है। 2014 में बाल संगीत पुरस्कार से सम्मानित डॉ. पाटिल दिखने और व्यवहार में बहुत सरल हैं, लेकिन बच्चों का लिटरसेचर फेस्टिवल संचालित करने वाले बच्चे जरूर अपने स्टाइल स्टेटमेंट की छाप छोड़ते हैं। जिस तरह वे गंभीर विचार-विमर्श में खुद को प्रस्तुत करते हैं और किताब तथा लेखक के मन की व्याख्या करते हैं वे कई बुद्धिजीवियों को भी चकित कर देते हैं। 24 किताबों के लेखक और पाटिल को बच्चों के फिक्शन का चैंम्पियन माना जाता है। 
फंडा यह है कि बच्चों को साहित्य से परिचित कराइए। इससे उनका दृष्टिकोण विकसित होगा तथा वे अपना स्टाइल ब्ल्यू प्रिंट बना सकेंगे। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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