Sunday, September 11, 2016

UPSC परीक्षाओं में हिंदी के नाम पर मजाक: बेहद अपरिचित और कठिन शब्दों का इस्तेमाल

डॉ. विजय अग्रवाल (पूर्व प्रशासनिक अधिकारी)

हिंदी पखवाड़े के इन दिनों में थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि आप हिंदी भाषी राज्य मध्य प्रदेश में पैदा हुए हैं और तब से लेकर अब तक संस्कृत के महान कवि कालिदास की नगरी उच्जैन में रह रहे हैं। आपने वहीं के विक्रम विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्वर्ण पदक के साथ हिंदी साहित्य में एमए एवं बाद में ‘हिंदी पर संस्कृत भाषा का प्रभाव’ विषय पर पीएचडी की है। फिर आपने भारत सरकार में हिंदी अधिकारी के पद के लिए आवेदन दिया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। संघ लोक सेवा आयोग इसके लिए एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करता है, जिसमें वह आपके हिंदी भाषा के ज्ञान को जांचने के लिए आपको एक प्रश्नपत्र देता है। उस पेपर में आपसे कुछ इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं-(1) निम्न शब्दों के अर्थ समझाएं- बहुशाखन, प्रायिकता, वृत्तिक सेवा, अवक्रमण, प्रतिच्छेदन-स्थल, सुप्रचालनिका एवं अभिसमय। (2) ‘पिछड़े क्षेत्रों में बड़े उद्योगों का विकास करने के सरकार के लगातार अभियानों का परिणाम जनजातीय जनता और किसानों, जिनको अनेक विस्थापनों का सामना करना पड़ रहा है, का विलगन है।’ इसका अंग्रेजी में अनुवाद कीजिए। (3) ‘जलवायु अनुकूलन अप्रभावी हो सकता है, यदि दूसरे विकास संबंधी सरोकारों के संदर्भ में नीतियों को अभिकल्पित नहीं किया जाता। उदाहरण के तौर पर एक व्यापक रणनीति, जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा की अभिवृद्धि करने का प्रयास करती है, कृषि प्रसार, फसल विविधता, एकीकृत जल एवं पीड़क प्रबंधन और कृषि सूचना सेवाओं से संबंधित उपायों के एक समुच्चय को सम्मिलित कर सकती है।’ इस वाक्य का सरलीकरण कीजिए। आपको क्या लगता है कि आप इस परीक्षा में चुन लिए जाएंगे, जबकि आपकी पृष्ठभूमि वह है जो शुरू में दी गई है? मेरे इस एक सामान्य से व्यावहारिक प्रश्न पर विचार कीजिए कि क्या ऐसी हिंदी से कहीं भी, कभी भी आपकी मुलाकात हुई है- पढ़ने में या सुनने में भी। अगला सवाल है कि यह कहां की और किसकी हिंदी है- सरकारी परिपत्रों की, संविधान की, एनसीईआरटी की किताबों की, सिनेमा की, टीवी की, अखबारों की आदि-आदि। आपका उत्तर होगा-इनमें से किसी की भी नहीं। तो फिर यह हिंदी आई कहां से है?

यह हिंदी हमारे देश के शीर्ष नौकरशाहों की भर्ती करने वाली एजेंसी यूपीएससी की हिंदी है। और उस परीक्षा के प्रश्नपत्रों की हिंदी, जिसके जरिए वह इस देश को आइएएस, आइएफएस, आइपीएस तथा अन्य बड़े-बड़े ब्यूरोक्रेट्स देती है। यह हिंदी नहीं, हिंदी वालों के साथ-साथ सभी भारतीय भाषाओं के साथ संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाने वाला एक मजाक है। 1979 में इस आजाद भारत को इस बात की आजादी मिली थी कि परीक्षार्थी सर्वोच्च सिविल सेवा परीक्षा अपनी भाषा में दे सकेंगे, लेकिन प्रश्नपत्र केवल दो ही भाषाओं में दिया जाएगा-अंग्रेजी और हिंदी में। जाहिर है कि भाषा को लेकर अंग्रेजी वालों को न तो पहले कोई समस्या थी और न ही आज है। हां, उनका वर्चस्व जरूर टूटा है।

इसके बाद के लगभग पच्चीस सालों तक की इसकी हंिदूी ठीक-ठाक ही रही, हालांकि वह भी कोई सुगम हिंदी नहीं थी। लेकिन पिछले लगभग दस सालों में तो कमाल ही हो गया है। लगता है कि यूपीएससी ने किसी ऐसे ग्रह की खोज कर ली है जहां ऐसी हिंदी बोली और समझी जाती है। वस्तुत: इसका प्रभाव यह हो रहा है कि हिंदी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा के परीक्षार्थी पेपर में दी गई हिंदी को समझने में ही बुरी तरह उलझ जाते हैं, जबकि परीक्षा में समय का दबाव इतना अधिक रहता है कि आप एक मिनट भी जाया करना बर्दाश्त नहीं कर सकते। क्षेत्रीय भाषा वाले इस संकट में इसलिए भागीदार बनते हैं, क्योंकि यदि उन्हें अंग्रेजी आ रही होती तो वे उसे ही अपना माध्यम चुन लेते। अंग्रेजी उन्हें आती नहीं और हिंदी ऐसी कि वह समझ में नहीं आ रही है। अंग्रेजी के साथ ऐसा नहीं है कि वहां हिंदी की तरह ही पुराने लैटिन, ग्रीक या बाइबल की भाषा से शब्द खोज-खोजकर ठूंसे जाएं। अंग्रेजी की भाषा वह भाषा होती है, जिसे वे पढ़कर स्नातक बनते हैं और रोजाना अखबारों में भी पढ़ते हैं। सच यह है कि यही वह प्रारंभिक स्थिति है, जब प्रतियोगिता के लिए सभी को समान धरातल उपलब्ध कराए जाने का मूल सिद्धांत ध्वस्त हो जाता है। यदि आपको मेरी बातों पर यकीन न हो रहा हो, तो कृपया आप किसी भुक्तभोगी से पूछ लीजिए। आप उसे खून के आंसू रोते हुए पाएंगे।

अंगेजी के लिए जब हिंदी के कई शब्द व्यवहार में आ गए हैं तो उनका उपयोग न करके न जाने कहां की टकसाल से नए-नए शब्दों को ढालने की कारीगरी का उद्देश्य आखिर क्या है? उदाहरण के लिए ‘पेरिस कांफ्रेंस’ इसकी हिंदी है-पेरिस अभिसमय। जबकि शब्दकोष तक में इसके लिए सम्मेलन शब्द दिया हुआ है और इसका खूब उपयोग भी होता है। यूपीएससी के गूगल महाशय अपने ही अनुवाद में कहीं ‘प्रोफेशनल’ के लिए ‘संव्यावसायिक’ शब्द ले आते हैं तो कहीं ‘वृत्तिक’। हद तो तब हो जाती है जब आपकी मुलाकात ‘मेगा-सिटी’ की हिंदी ‘विराट-नगर’ (महानगर नहीं) ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ की जगह ‘जाति-विनाश’ तथा ‘डिस्प्यूट रिसोल्यूशन मैकेनिज्म’ के बदले ‘विवाद समाधान यांत्रिकत्व’ से होती है। इस ‘यांत्रिकत्व अनुवाद’ ने परीक्षार्थियों के दिमाग में दम कर रखा है। इन सबसे कुछ बातें तो बिल्कुल साफ हैं। पहला यह कि आयोग को हिंदी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह इसे मजबूरी में ढोये हुए है। दूसरा यह कि वह न केवल भाषाई असंवेदनशीलता से ग्रस्त है, बल्कि अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य सभी भाषाओं के प्रति दुराग्रही-पूर्वाग्रही भी है। तीसरे यह कि हिंदी के बारे में उसके पास अनुवाद की कोई एक नीति नहीं है। चौथे यह कि एक बार जो अनुवाद हो जाता है उसे देखने वाला वहां कोई नहीं है। इस तरह की हिंदी को लेकर युवाओं में एक अजीब किस्म की मूक छटपटाहट है, जो धीरे-धीरे आक्रोश का रूप लेने की ओर बढ़ रही है। फिलहाल मोदीजी की सरकार से ये नौजवान अपेक्षा कर रहे हैं कि वे इस भाषाई भेदभाव को दूर करेंगे। ‘सी सेट’ के मामले में ऐसा करके वे सदाशयता का परिचय दे चुके हैं।

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साभारजागरण समाचार 
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