Sunday, January 1, 2017

जीवन दर्शन: मकान चाहे कच्चे हों, पर रिश्ते सारे सच्चे हों

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
मैं पिछले तीन दिनों से उस घर को गौर से देख रहा हूं। कड़ाके की सर्दी में भी उस घर में बहुत सुबह ही लाइट लग जाती है। बीस मिनट बाद घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति घर के बाहर आकर करकराती आवाज के साथ लकड़ी का
दरवाजा खोलते हैं। घर की युवा महिला चावल का आटा लेकर घर से बाहर आती है और उससे रांगोली बनाती है। परम्परागत सामग्री का प्रयोग नहीं करती ताकि चींटियां और अन्य छोटे जीव आकर उसे खा सकें। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इसी दौरान कुछ कबूतर, कौए और अन्य पक्षी उस मकान की छत पर मंडराने लगते हैं। फिर घर की बुजुर्ग महिला बाहर से छत पर जाने वाली सीढ़ियां चढ़ती हैं। एक हाथ में पीतल के पात्र में पानी और दूसरे हाथ में एक थैली होती है। वे तुलसी के पौधे के सामने जाकर प्रार्थना करती हैं और शोर मचाने वाले पक्षी अचानक शांत हो जाते हैं जैसे वे उनकी प्रार्थना सुन रहे हों, उनकी प्रार्थना में खलल पहुंचाना चाहते हों। जब वे पीतल के पात्र से तुलसी के पौधे को पानी देती हैं तो पक्षी एक छोटी उड़ान भरते हैं जैसे हम वर्जिश के पहले वॉर्म-अप करते हैं। सौ जोड़ी से ज्यादा आंखें उन्हें पीतल का पात्र नीचे रखती देखती हैं। फिर वे धीरे से थैली उठाती हैं तथा एक वंदना के स्वरों के बीच मुट्‌ठी भर भरकर अनाज के दाने छत पर बिखेर देती हैं। पक्षी बिजली की रफ्तार से उन दानों पर टूट पड़ते हैं। फिर अगले एक घंटे तक कोई आवाज नहीं होती। सिर्फ अलग-अलग कमरों में लाइट जलती-बुझती रहती हैं। ठीक 8 बजे एक लड़की दौड़ती हुई आती है और इंतजार करती गाय को रोटी खिलाती है, एक मिनट प्रार्थना करती है और दौड़कर भीतर चली जाती है। एक आवारा कुत्ता वहां पिछले पांच मिनट से धैर्यपूर्वक इंतजार कर रहा है। गाय के रोटी खाकर चले जाने के 20 मिनट बाद एक लड़का बाहर आकर कुत्ते को कुछ खाने को देता है। इससे मुझे मेरी मां की याद आई, जो पहली रोटी उस गाय को देती थी, जो हमारे घर आती थी और आखिरी रोटी गली के कुत्ते मोती के लिए होती। धीरे-धीरे एक के बाद एक घर के सदस्य बाहर जाने लगते हैं। दो बच्चे स्कूल चले जाते हैं, बड़ा कॉलेज जाता है और पिता अपने काम पर चले जाते हैं। सुबह घर का दरवाजा खोलने वाले बुजुर्ग अब भी बाहर बैठकर अखबार पढ़ रहे होते हैं। बीच-बीच में वहां से गुजरने वाले लोग उन्हें अभिवादन करते हैं, कुछ आकर पैर भी छू लेते हैं। फिर 'नंदी' आता है, जिसे गुड़ मिलता है और फिर एक काला कुत्ता आता है। लगता है कि जैसे उसे पता है आज शनिवार है और उसे बुजुर्ग महिला से उसके हिस्से का भोजन मिलेगा! पूरे िदन में उस घर में सिर्फ दो मिलने वाले आए, दोनों ने बुर्जुर्ग व्यक्ति के साथ काफी वक्त गुजारा अौर भोजन भी किया। दोपहर बाद 2 बजे बुजुर्ग महिला भी बुजुर्ग के साथ आकर बैठ गई। दोपहर की झपकी लेने के पहले दोनों कुछ देर बातें करते रहे। 
शाम को गली के बुजुर्गों की एक बैठक उस घर के आंगन में होती है। सबको चाय दी जाती है। सुबह जाने वाले लोग घर में लौटने लगते हैं। घर में प्रवेश के पहले परिवार का हर सदस्य वहां मौजूद बुजुर्गों के पैर छूता है। घर की युवा महिला एक बार बाहर आकर दिया लगाकर जाती है। घर निम्न मध्यवर्ग का है और कोई भी घर की चीजों की गिनती कर सकता है, क्योंकि घर में ज्यादा चीजें नहीं हैं। किंतु मैं एक दिन में वहां भोजन पाने वालों की गिनती भूल गया। रात आठ बजे के करीब दरवाजे के करकराने की आवाज ने घर के बंद होने का संकेत दिया। उस घर में सन्नाटा छा गया लेकिन, जब 11 बजे मैं सोने गया तो दिया तब भी जल रहा था। कितना आदर्श है यह घर। कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं, कोई चीख-पुकार नहीं। कोई विलासिता की सामग्री महंगी वस्तुएं नहीं, लेकिन फिर भी यह एक मंदिर जैसा है- सारे भूखे प्राणियों को दिन का भोजन मिला और यह घर साल के सारे 365 दिनों में ऐसा ही रहता है। 
फंडा यह है कि हमारेदेश में अभी भी कई ऐेसे मकान हैं, जिनकी दीवारें तो कमजोर हैं, लेकिन उन दीवारों के भीतर रहने वालों के रिश्ते अत्यधिक मजबूत हैं। प्रार्थना करें कि 2017 में हमारे घरों में ऐसे ही मजबूत संबंध बने रहे। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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