एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
उनका जन्म मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा के समीप पातालकोट स्थित गांव तामिया में हुआ था। वे ज्यादातर युवाओं जैसे थे- दिशाहीन और किसी उद्देश्य से रहित। उन्होंने सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई की थी, क्योंकि उनके
पालक यह चाहते थे। औसत से कम स्तर के छात्र होने से उन्हें अंक कम मिले, लेकिन उनकी जबान बहुत मीठी थी जैसाकि हम अपने आसपास कम सफल छात्रों में देखते हैं। आज 38 के हो चुके पवन श्रीवास्तव किसी भी युवा की तरह जल्दी पैसा कमाने के फेर में पड़ गए, वह भी बिना कड़ी मेहनत के। उन्होंने एक चिट फंड कंपनी ज्वॉइन कर ली और लोगों से पैसे इकट्ठे करने शुरू कर दिए। चूंकि जिंदगी में कोई उद्देश्य नहीं था तो वे इधर-उधर भटकते और कमाई से ज्यादा खर्च कर देते, अपने आसपास के वातावरण के बारे में नकारात्मक विचार रखते। उनके पास हमेशा पैसे की कमी रहती और तेजी से पैसे कमाने के मौके की खोज में रहते। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ उनकी मां तुलसा श्रीवास्तव, जो 18 साल की उम्र में आदिवासी इलाके में आई थीं, सरकारी एजेंसियों द्वारा आदिवासियों के लिए चलाई जाने वाली बालवाड़ी की संयोजक बन गईं। वे ऐसा करने वाली पहली महिला थीं। उनके सौजन्यतापूर्ण व्यवहार ने उन्हें कई महिलाओं के लिए 'ताई' (बहन) बना दिया, जो उनके पास घरेलू समस्याओं के समाधान के लिए आती थीं। वे सिर्फ लोकप्रिय हो गईं बल्कि उस क्षेत्र के लिए प्रेरणा बन गईं। हर महिला एक दिन तुलसा ताई जैसा बनने की हसरत रखने लगी। 31 जुलाई 2010 को जब वे रिटायर हुई तो स्थानीय बाल-विकास कल्याण विभाग में कई लोगों ने तुलसा ताई के 40 वर्षों के सेवाकार्य के उपलक्ष्य में गौरव दिवस मनाया। तुलसा माई धीरे-धीरे पवन के लिए भी प्रेरणा बन गईं, लेकिन पैसे को लेकर उनका संघर्ष जारी रहा। उन्होंने परिवार के टेंट बिज़नेस को चलाने की नाकाम कोशिश की। वे राज्य सरकार द्वारा संचालित आदिवासी विकास के काम से जुड़ गए पर 8 हजार रुपए प्रति माह से ज्यादा नहीं कमा पाते थे। जब वे पातालकोट पर्यटन सूचना केंद्र में काम करने लगे तो इस जगह ने उन्हें आकर्षित किया, क्योंकि यह एकमात्र पर्यटन केंद्र है, जो समुद्र तल से 1400 फीट नीचे है। वहां सूर्य प्रतिदिन केवल तीन घंटे ही दिखाई देता है। उस पाताल के 6 हजार से ज्यादा आदिवासियों की जीवनशैली ने उन्हें एक 'ट्राइब एस्केप्स' नामक पर्यटन केंद्र खोलने की प्रेरणा दी, जो ट्रेकिंग, जंगल सफारी, कैंपिंग, बर्ड वाचिंग, एडवेंचर स्पोर्ट्स आदि के आयोजन करता और उस दौरान आदिवासी व्यंजन बनाकर पर्यटकों को परोसे जाते हैं।
आदिवासी जंगली आम खाते हैं, जिसमें पल्प नहीं होता। उसके बीज को जमीन में गाड़ दिया जाता है और नदी के बहते पानी के नीचे तीन दिन रखकर उसका सारा कसैलापन खत्म होने दिया जाता है। फिर आम की पेस्ट बनाकर 'आम की रोटी' बनाई जाती है। 'कुटकी' चावल की एक किस्म है, जो घास जैसा दिखता है। इसमें वे सारे प्रोटीन होते हैं, जो कड़ी मेहनत करने वाले व्यक्ति को चाहिए होते हैं। 'कुटकी कंज' का एक बाउल आपके पेट को आठ घंटे तक भरा हुअा रख सकता है। पवन धीरे-धीरे क्षेत्र में लोकप्रिय होते जा रहे हैं। वे आदिवासियों के प्रतिनिधि और उनका 'चेहरा' बनना चाहते हैं, पहले मध्यप्रदेश के लिए और फिर पूरे देश के। वे इसके लिए देश की विभिन्न आदिवासी तबकों की जिंदगी को रिकॉर्ड कर रहे हैं। पवन से मेरी मुलाकात छिंदवाड़ा में गत रविवार इस अखबार के कार्यक्रम में हुई और मैंने पाया कि उनमें आदिवासियों के बारे में 'पातालकोट' जैसी गहराई वाला ज्ञान अर्जित करने का जुनून है। इसके अलावा वे इससे बहुत खुश भी हैं।
फंडा यह है कि शिक्षामेें औसत रहने पर भी यदि भीतर की आवाज सुनकर काम करें तो खुशी के साथ वाजिब सफलता भी मिलेगी।
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साभार: भास्कर समाचार
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