Saturday, June 4, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: 'डिप्रेशन' से निकाल सकती है सिर्फ इंसानियत

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
शुक्रवार को आईआईटी खडगपुर से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट छात्र की एक खबर गलत कारणों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में हैडलाइन बनी। उस पर पुरानी गर्लफ्रेंड और अपने प्रोफेसर वीलियम क्लग की हत्या का आरोप लगा। इसी प्रोफसेर के अंडर में उसने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पीएचडी की थी। प्रोफेसर पर उसने अपने कंप्यूटर का कोड चुराने और लॉस एंजिल्स स्थित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में किसी और को देने का
आराेप लगाया। छात्र ने बाद में आत्महत्या कर ली। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हालांकि, आईआईटी खडगपुर के अधिकारी और एलमनी ऐसोसिएशन यह नहीं बता पा रहे हैं कि माणिक सरकार वहां रहा भी है या नहीं। िकंतु फेसबुक पर एक ग्रुप फोटो में वह एयरोस्पेस इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के बाहर दिखाई दे रहा है। दो बॉलिवुड फिल्में '3 इडियट्स' और 'कपूर एंड सन्स' इस विषय को समझने में मदद कर सकती हैं। झूठे सर्टिफिकेट और मां का अपने कमजोर बेटे के लिए ब्रिलियंट बेटे के काम को चुराते दिखाया है। दोनों ही फिल्मों में पैरेंटिंग को दोषी ठहराया गया है कि वे यह बात स्वीकार नहीं कर पाते कि उनका बच्चा फेल हो सकता है और आज क्लीनिकल मनोविज्ञान भी इस बात से सहमति रखता है। 
मुझे याद है मेरी मां जब मैसूर पाक बनाती थी तो सुगंध के पीछे मैं खेल के मैदान से घर की ओर दौड़ पड़ता था, लेकिन मुझे तीन और लोगों के पहुंचने का इंतजार करना होता था- ईश्वर के नैवेध्य का, मेरे पिता के ऑफिस से लौटने का और बहन का, जो डांस क्लास गई होती थी। मुझे हर चीज अपनी बहन के साथ शेयर करनी होती थी। यह मेरे लिए जरूरी कर दिया गया था, खासकर जब से मां ने महसूस किया था कि छोटी बहन के जन्म के बाद से मैं बहुत स्वार्थी हो गया हूं। यह सिर्फ मिठाई की ही बात नहीं थी। मैं बहन को साइकिल से स्कूल छोड़ता था। मैं कभी भी इसे अपने स्कूल जाने से पहले शेयर नहीं करना चाहता था। शाम को मुझे गिल्ली-डंडा सहित और भी कई चीजें छोड़कर उसे चिड़ियाघर ले जाना पड़ता था। यह तब तक चलता रहा जब तक कि मैं स्वयं ही उससे जुड़ाव महसूस नहीं करने लगा। कई बार मुझे अपना होमवर्क शुरू करने से पहले उसका होमवर्क पूरा कराना पड़ता था, ताकि वह जल्दी सो सके। मां ने ऐसा ही उसके साथ भी किया। बहन तब 11 साल की हो गई थी और मैं 19 साल का था। मां उससे कहती- भाई के साथ शेयर करो, तब तक मत खाना जब तक वह स्कूल से नहीं जाए या भाई पढ़ रहा है, उसे डिस्टर्ब मत करो। आदि। इन सभी अलिखित नियमों में अनुशासन के पक्के पिता को मैं हमेशा मौन पाता। वे रिश्तों में मां की सीख के मामले में हमें कोई रियायत नहीं देते। उनकी दिलचस्पी हमारी पढ़ाई में ही ज्यादा होती। हमें पढ़ाई में फेल होने पर नहीं, रिश्तों के मामले में फेल होने पर सजा मिलती थी। 
आज माता-पिता की भूमिका में हम दो चॉकलेट लेकर आते हैं और दोनों बच्चों को एक-एक देते हैं। कहते हैं लड़ना मत। हर चीज से ऊपर पढ़ाई हो गई है। दो कमरे, दो बिस्तर, अलग-अलग खिलौने आजकल का कायदा है। हम नहीं चाहते कि हमारा बच्चा फेल हो, क्योंकि यह 'इज्जत' की बात होती है। दूसरी तरफ तकनीक है, जो बच्चों को यह समझने ही नहीं देती कि मशीनों के बाहर भी एक दुनिया है। उन दिनों दूसरों की जरूरतों को समझने की संवेदनशीलता हमें बलपूर्वक सिखाई जाती थी, क्योंकि सामग्री कम थी। दूसरी तरफ विराट कोहली हैं, जो आईपीएल जीतने में सफल नहीं रहे। उन्होंने संदेश दिया कि हीरो भी फेल हो जाते हैं, क्योंकि वे भी इंसान होते हैं। पेरेंटिंग का पहले का दौर सिखाता था कि दूसरों के लिए कुछ करो, जो खुशनुमा अहसास देता था। आत्मकेंद्रित होने से बचाता था। 
फंडा यह है कि बच्चों को शिक्षा के साथ इंसानियत से जोड़िए और उन्हें यह अहसास होने दीजिए कि हीरो भी फेल होते हैं। यह आज के अवसाद के दौर को हैंडल करने का अच्छा तरीका होगा। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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