Friday, June 3, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: जीवन में सुकून चाहते हैं तो बनाए रूल-बुक

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
स्टोरी 1: विकासउस समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो हमेशा शहर या गांव के बाहर रहता है। इनका मूल व्यवसाय ही घुम्मकड़ी है और उनके बच्चे स्कूल जाने के स्थान पर भेड़-बकरी चराते हैं। जैसे-जैसे शहर अपनी सीमाएं बढ़ाते जाते हैं, ये लोग भी बिना किसी एतराज के पीछे हटते जाते हैं। इस समुदाय का नाम है धनगर और परंपरागत रूप से ये भेड़ पालने का काम करते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र में इनकी आबादी सबसे ज्यादा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार इनकी आबादी एक करोड़ से ज्यादा है। इसी समुदाय से सेंट्रल एक्साइज में काम करने वाले पिता ने किसी तरह विकास को एमबीबीएस की पढ़ाई कराई। फिर ऑप्थेमोलॉजी में मास्टर्स की डिग्री लेने में भी सहयोग किया। वे नागपुर के बाहरी इलाके में रहते थे, इसलिए अपने घर के आंगन में क्लीनिक खोल लिया, लेकिन उनकी चिंता यह थी कि कैसे रोगी उन तक आएं। उन्होंने नेत्र शिविर लगाने का आइडिया आजमाया, ताकि लोग क्लीनिक पर आने लगें। साथ ही गरीब रोगियों को फीस में रियायत भी दी। नेत्र शिविर का उनका विचार काम कर गया और रोगी उन तक पहुंचने लगे। 
उन्होंने अकेले ही एक दिन में 20 सर्जरी कीं और अब तक एक लाख से ज्यादा सर्जरी कर चुके हैं। इसके अलावा वे नेत्र-विज्ञान के युवा डॉक्टर्स को भी अपने काम में सिद्धहस्त बनने में मदद कर रहे हैं। आज वे चैरिटेबल अस्पताल चलाते हैं और जरूरतमंदों की सर्जरी मुफ्त करते हैं, लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी किसी तरह की सराहना या स्वीकार्यता की उम्मीद नहीं रखी। किंतु गरीबों की मदद के काम ने आखिर उन्हें पद्‌मश्री अलंकरण से सम्मानित होने का गौरव दिलाया। मिलिए डॉक्टर विकास महात्मे से, जो अब 63 साल के हो चुके हैं और इस साल राज्यसभा के लिए नामांकन से वे संसद में पहुंचने वाले अपने समुदाय के पहले व्यक्ति बन जाएंगे। उनकी रूलबुक कहती है कि समुदाय के लिए आरक्षण के लिए संघर्ष करने के स्थान पर जब वे संसद में नहीं होंगे तो आंखों की सर्जरी जारी रखेंगे। 
स्टोरी 2: मुंबईके निकट कल्याण रेलवे स्टेशन पर सुबह 6.50 बजे प्लेटफॉर्म नंबर-1 पर गीता देशमुख और संगीता भिडे चली जा रही थीं। दोनों महिलाएं, महिलाओं के फर्स्ट क्लास की बोगी के स्थान पर जाकर रुकीं। दो मिनट बाद एक और महिला उसी बोगी के पास आकर रुकी और उनके पीछे खड़ी हो गई। सात मिनट में ही इस कतार में 17 लोग गए। 7.05 बजे जब खाली ट्रेन वहां पहुंची तो 45 लोग इस कतार में थे। यह असामान्य दृश्य था जो आमतौर पर दिखाई नहीं देता। कम से कम रेलवे स्टेशन पर तो ऐसा संभव नहीं है। वहां कोई पुलिसकर्मी था और ही सीसीटीवी कैमरा। फिर भी सभी 45 यात्री एक के पीछे एक कतार में ट्रेन में सवार हुए, बिना किसी को कोहनी मारे और बिना खींचतान और धक्कामुक्की किए। बोर्डिंग की प्रक्रिया एक मिनट सात सेकंड में पूरी हो गई। कोई भी ऐसा शख्स नहीं था जो सीट के लिए झगड़ रहा हो। महिलाओं ने जो शिष्टाचार दिखाया उससे लगा कि आप विदेश में किसी स्थान पर हैं। हालांकि, कतार में खड़े होने की यह व्यवस्था स्वत: ही शुरू हो गई थी। समय के साथ महिला यात्रियों ने इसे नियमित व्यवस्था का रूप दे दिया। यह शिष्टाचार पिछले एक साल से जारी है, क्योंकि नियमित यात्री चाहते हैं कि वे दिन की शुरुआत बिना किसी झगड़े और नाराजगी के करें। हालांकि, यह व्यवस्था सभी स्टेशन पर संभव नहीं है। किंतु उन स्टेशनों पर तो हो ही सकती है, जहां से ट्रेन चलती है। इस दृश्य के विपरीत पास के ही फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में यात्री इसी तरह के खाली कम्पार्टमेंट में 20 सेकेंड से भी कम समय में चढ़ गए और वहां दो झगड़े हो रहे थे, कौन पहले आया और बाहर के लोग मामला सुलझा रहे थे। 
फंडा यह है कि व्यक्ति हो या समूह अगर सार्थक जीवन जीना चाहते हैं, जो किसी व्यवस्थित ढांचे में चलता है - तो आपको जीवन की हर गतिविधि के लिए अपनी रूलबुक तैयार करना होगी। और फिर इसी से सुकून और स्वीकार्यता मिलेगी। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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