प्रेम पाल शर्मा (रेलवे बोर्ड के पूर्व संयुक्त सचिव, जाने-माने कहानीकार एवं शिक्षा मामलों के विशेषज्ञ)
सुब्रमण्यम समिति ने अपनी लगभग दौ सौ पन्नों की रिपोर्ट मानव संसाधन विकास मंत्रलय को सौंप दी है। इसको मोटा-मोटी 33 विषयों पर विचार करना था। समिति के अध्यक्ष थे पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम जो प्रशासनिक दक्षता के साथ-साथ सामाजिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं। समिति ने कुछ
महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं जिनमें एक सिफारिश अभूतपूर्व ही कही जाएगी। यह है विश्वविद्यालयी शिक्षकों के लिए एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा का गठन, जिससे नियुक्तियां संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल सेवा परीक्षा की तर्ज पर हों। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षा सुधार के लिए यह दूरगामी कदम होगा। शिक्षा समवर्ती सूची में है, लेकिन विश्वविद्यालयों के निरंतर गिरते स्तर को रोकने के लिए यह तुरंत किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती में राजनीति, भाई-भतीजावाद, जातिवाद और अन्य भ्रष्टाचार का ऐसा बोलबाला हुआ है कि पंसारी की दुकान की नौकरी और विश्वविद्यालय की नौकरी में अंतर नहीं बचा। रोज-रोज बदलती नेट परीक्षा, पीएचडी में उम्र के मापदंडों ने पूरी पीढ़ी का विश्वास खो दिया है। फल-फूल रहे हैं तो शिक्षक संगठन और उनके नेता। हालांकि उनके वेतनमान, पदोन्नति और अन्य सुविधाएं अखिल भारतीय केंद्रीय सेवाओं के समकक्ष हैं, लेकिन उनकी रुचि न पढ़ाने में है न शोध में। इसीलिए न शोध का स्तर बचा है न अकादमिक माहौल का। शायद यही कारण है कि प्रतिवर्ष अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया से लेकर पूरे यूरोप में पढ़ने के लिए भारतीय छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इससे विदेशी मुद्रा का नुकसान हो रहा है। देश से प्रतिभा पलायन को रहा है। अपने संसाधन बेकार हो रहे हैं। बेरोजगारी बढ़ रही है। उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में दक्षिण भारत का शायद ही कोई छात्र मिले। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जरूर उम्मीद बची है, लेकिन पतन वहां भी तेजी से जारी है। अखिल भारतीय सेवा का गठन भर्ती की बुनियादी कमजोरी को दूर करेगा। कम से कम यूपीएससी जैसी संस्था की ईमानदारी और उसके प्रगतिशील रुख पर पूरे देश को गर्व है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार ऐसी ही भर्ती प्रणाली न्यायिक सेवा में भी लाएगी। यही कदम सिद्ध करेंगे कि यह सरकार पहले की सरकारों से भिन्न है? दूसरी महत्वपूर्ण मगर उतनी ही विवादास्पद सिफारिश आठवीं तक बच्चों को फेल न करने की नीति को उलटना और बदलना है। शिक्षा अधिकार अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि किसी भी बच्चे को आठवीं तक फेल नहीं किया जाएगा। उद्देश्ययह था कि इससे जो बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं उन्हें एक स्तर तक पढ़ाई के लिए स्कूल में रोका जा सके, मगर कार्यान्वयन की खामियों की वजह से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है और अधिकांश राज्य इसके खिलाफ हैं। 18 राज्यों ने इसे हटाने का अनुरोध केंद्र सरकार से किया है जिसमें कर्नाटक, केरल, हरियाणा से लेकर दिल्ली भी शामिल हैं। चूंकि शिक्षा का अधिकार कानून केंद्र सरकार का बनाया हुआ है इसलिए वही इसमें राज्यों के सुझावों और अब सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों के मद्देनजर परिवर्तन कर सकती है। किसी भी तर्क से छात्रों को केवल स्कूल में रोकना ही शिक्षा का मकसद नहीं हो सकता। उन्हें जानकारी से लैस होने के साथ लिखना-पढ़ना भी आना चाहिए। अकेली इस नीति ने शिक्षा का नुकसान ज्यादा किया है। हाल के परिणाम भी इसके गवाह हैं। दिल्ली के दो स्कूलों में कक्षा नौ में लगभग नब्बे प्रतिशत बच्चे फेल हो गए। कारण आठवीं तक कोई परीक्षा न होने की वजह से उन्होंने कुछ सीखने की जहमत ही नहीं उठाई। अधिकांश मामलों में तो वे स्कूल भी नहीं आते। सुब्रमण्यम समिति ने पांचवीं कक्षा के बाद परीक्षा की अनुशंसा की है और यह भी कि फेल होने वाले छात्र को तीन मौके दिए जाएं और स्कूल ऐसे कमजोर बच्चों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त व्यवस्था करे। इस समिति की कुछ और सिफारिशें पुरानी बातों की पुनरावृत्ति मानी जा सकती हैं। जैसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और एआईसीटीई का पुनर्गठन, जिससे ये संस्थाएं और प्रभावी बनाई जा सकें। देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति पुरानी सरकार भी देना चाह रही थी। तीन भाषा फॉमरूले पर भी समिति उसी पुरानी नीति पर चलने के लिए कह रही है जो 1968 और 1986 की शिक्षा नीति में शामिल था। भाषा के मसले पर सुब्रमण्यम समिति से पूरे देश को उम्मीदें थीं। इसलिए और भी कि मोदी सरकार ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं के पक्ष में निर्णय लिया था। 2011 में संप्रग सरकार ने मनमाने ढंग से सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण में अंग्रेजी लाद दी थी जिससे भारतीय भाषा के छात्रों की संख्या पंद्रह प्रतिशत से घटकर पांच प्रतिशत से भी कम हो गई थी। मोदी सरकार ने 2014 में इसे उलट दिया। एक और समिति संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का जायजा ले रही है। उम्मीद है कि यह समिति दूसरी अखिल भारतीय सेवाओं जैसे वन सेवा, चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि में भी भारतीय भाषाओं की शुरुआत करेगी, लेकिन सुब्रमण्यम समिति स्कूली और विश्वविद्यालयी स्तरों पर शिक्षा अपनी भाषाओं में देने की सिफारिश करती तो अच्छा रहता। सुब्रमण्यम उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी रहे हैं, तमिल भाषी हैं और अपनी किताब टर्निग प्वाइंट में अपने बचपन को याद करते हुए उन्होंने भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने की तारीफ और वकालत की है। विद्वानों की इतनी बड़ी समिति से ऐसे राष्ट्रीय मुद्दे पर तो देश को उम्मीद रहती ही है। समिति की सिफारिशें मानव संसाधन मंत्रलय के पास हैं। उम्मीद है जन आकांक्षाओं को मूर्तरूप देने में मंत्रलय विलंब नहीं करेगा। न बार-बार ऐसी समितियां ऐसे क्रांतिकारी सुझाव देती हैं और न तुरंत कार्यान्वयन करने वाली सरकारें ही सत्ता में आती हैं।
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साभार: जागरण समाचार
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