एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
उसके माता-पिता फूल बेचते हैं, जिससे थोड़ी-सी ही कमाई हो पाती है। सातवीं के बाद उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि बेटी को आगे पढ़ा सकें, लेकिन आज 2015 में बेटी मोनिका भावसार अहमदाबाद कॉलेज में इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन ब्रांच में इंजीनियरिंग कर रही है। सिलसिलेवार उसे सब मिलता गया। स्कूल के बाद कॉलेज लेपटॉप जैसी सुविधाओं तक सब कुछ। इसके अलावा ग्रेजुएशन के लिए किताबें और पढ़ाई की दूसरी चीजें भी। सागर खत्री इंजीनियरिंग के टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी कोर्स के अंतिम वर्ष में हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कुछ साल पहले उनके पास भी हाई स्कूल की पढ़ाई के पैसे नहीं थे। जयदीप पटेल एचएससी कर रहे थे और नहीं जानते थे कि आगे कौन-सा विषय लेना चाहिए। लंबे काउंसलिंग सेशन के बाद उन्होंने बीएससी की पढ़ाई शुरू की। वे गणित के लेक्चरर बनना चाहते थे। आज वे अपना सपना पूरा करने के सफर में आधा रास्ता तय कर चुके हैं। मीतल पटेल ने बीसीए किया है और वे अब अपने परिवार की आर्थिक रूप से मदद कर रही हैं, जबकि कुछ साल पहले तक उनका परिवार उन्हें पढ़ाने की स्थिति में नहीं था। ऐसे कई लोग हैं। कुछ ने कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया है। सीए किया है। कुछ इंजीनियरिंग कर रहे हैं और कई अन्य अपनी पसंद के दूसरे कोर्स कर रहे हैं। इन सभी में एक चीज समान है। इनकी मदद, काउंसलिंग और प्रेरणा बनी है एक ही संस्था- 'दादा दादी नी विद्या परब।' परब का गुजराती में मतलब होता है वह स्थान जहां किसी भी गुजरने वाले को मुफ्त पानी पिलाया जाता है, विशेष रूप से गर्मी के मौसम में। 2004 में रिटायरमेंट के बाद उस दंपती के पास करने के लिए कुछ नहीं था। उन्होंने सोचा कि जो भी कुछ ज्ञान जीवन में हासिल किया है, व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। उन्होंने अपना ज्ञान उन लोगों तक पहुंचाने का फैसला किया जो अच्छी शिक्षा से वंचित हैं और जिनके पास इसके लिए पैसा भी नहीं है। दंपती ने एक 'परब' शुरू किया। पानी की प्यास बुझाने के लिए नहीं, बल्कि उन बच्चों की शिक्षा की प्यास बुझाने के लिए, जिनके पास यह प्यास बुझाने का कोई जरिया नहीं था। दीपक और मंजरी बुच ने इसका नाम रखा 'दादा दादी नी विद्या परब'। दो छात्रों के साथ शुरू हुआ काम माउथ पब्लिसिटी के जरिये जंगल की आग की तरह फैला। आज के दौर की भाषा में कहें तो वॉट्स एप से भी तेज। और पहले ही साल में उनसे 100 से भी ज्यादा लोगों ने मदद ली। फिलहाल वे 180 जरूरतमंद छात्रों की मदद कर रहे हैं।
मंजरी बुच प्राइमरी स्कूल के छात्रों की गणित और अंग्रेजी की पढ़ाई में मदद करती हैं, जबकि दीपक बुच सीनियर छात्रों की मदद करते हैं। किताबी ज्ञान के अलावा वे उनकी सांस्कृतिक जरूरतों, परिवार के सदस्यों के साथ उनके व्यवहार और समाज में उनकी भागीदारी पर भी नजर रखते हैं। संस्था उनके घर से ही काम करती है। संस्था सिर्फ उन्हीं बच्चों का चयन करती है, जो पढ़ाई तो करना चाहते हैं, लेकिन आगे बढ़ने के लिए किसी तरह की मदद की जरूरत है। पहला नियम यह है कि वे गरीब हों, जो कोचिंग का खर्च वहन नहीं कर सकते हों। दंपती का लक्ष्य छात्रों में आत्मविश्वास पैदा करना है और अच्छा नागरिक बनने के लिए समग्र रूप से उनके व्यक्तित्व का विकास करना है। कई छात्रों की वे उच्च शिक्षा में आर्थिक मदद कर रहे हैं। इस काम के लिए उन्हें कई लोगों से मदद मिली है और अधिकांश मदद उनके परिवार के सदस्यों से आती है। बुच दंपती सेवानिवृत्ति हो गए थे। वे शांति से रिटायर्ड लाइफ जी सकते थे। उनकी जरूरतें कम थी और पर्याप्त बचत भी थी, लेकिन उन्होंने इसके उलट अपना जीवन गरीबों को शिक्षा के जरिये ऊपर उठाने में लगाने का फैसला किया और ज्ञान की रोशनी फैलाते हुए उन्हें 11 वर्ष हो गए हैं। इसका संतोष उनके चेहरे पर देखा जा सकता है।
फंडा यह है कि किसीको नौकरी से रिटायर किया जा सकता है, लेकिन जीवन से रिटायर होने का फैसला इंसान का खुद का होता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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