मोहन आगाशे (अभिनेता,रंगकर्मी, साइकियाट्रिस्ट और पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के पूर्व डायरेक्टर )
सकारात्मकता कीबात करें तो प्रेरणा देने वाले हमारे साहित्य में पिछले कुछ वर्षों में पश्चिम के विचार अा गए हैं। मूल विचार तो यही है कि जिंदगी को सकारात्मक नज़रिये से देखना। उसे जटिल बनाकर प्रस्तुति लायक बनाया गया है। इतने वर्षों के मेरे अनुभव में मैंने पाया है कि कुल-मिलाकर दो प्रकार के लोग होते हैं। महाराष्ट्र
के लातूर में भूकंप आने के बाद जब मैं वहां साइकोसिस एंड रिहैबिलेटेशन के तहत पुनर्वास कार्यक्रम में शामिल हुआ तब पता चला कि ये दो प्रकार जन्मजात होते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। विपरीत परिस्थितियों को चुनौती के रूप में स्वीकार करने वाला एक समूह होता है और ऐसी परिस्थितियों को जिंदगी भर कारण के रूप में दोहराने वाला दूसरा समूह होता है। जिंदगी में जैसी भी स्थिति आए, पहला समूह यह देखने का प्रयत्न करता है कि उसमें क्या अच्छा है। अामतौर पर कहा जाता है कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है। यह वैसी ही सकारात्मक सोच की अभिव्यक्ति है।
दूसरा समूह विपरीत परिस्थिति को कारण के रूप में इस्तेमाल करता है। जिंदगी में कुछ करता नहीं। वह कारण देकर खुद को समझा लेता है। जैसे कोई कहे कि लातूर के भूकंप के बाद जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर गई। मैं उससे उबर नहीं पाया। ऐसे लोगों को काउंसिलिंग आदि की जरूरत होती है और पहले समूह के लोग उनकी मदद कर सकते हैं। लातूर के भूकंप के बाद शराब की खपत बढ़ गई। जब गहराई में गए तो ये दूसरे समूह के लोग ही थे। कुछ वास्तविक कारण भी होते हैं, जैसे पोस्ट ट्रॉमेटिक डिस्ट्रेस। टीन की छत पर बिल्ली के चलने से आवाज हो तो भूकंप की आशंका से मनुष्य का घबरा जाना। उसके पीछे ठोस कारण है। मेरे हिसाब से पॉजिटिविटी यानी सकारात्मक वृत्ति होना। मर्जी मुताबिक नहीं हुआ तो खुशी नहीं होती, लेकिन सकारात्मक रुख यह होगा कि इसके पीछे शायद यह कारण है कि इससे अच्छी कोई बात होने वाली है। हमारी भावनाएं स्थिर हों, मन पर काबू होगा तो सकारात्मक विचारों की ओर िदमाग को केंद्रित किया जा सकता है।
अनुभव से विचार और विचार से कर्म, यह जल्दी-जल्दी होना चाहिए, लेकिन मौजूदा समाज विचार पर ही अटक जाता है। कर्म की उपेक्षा हो जाती है। अनुभव और शिक्षा के संबंध को भी देखना होगा। शिक्षित यानी जो पढ़-लिख सके। यह अवधारणा इतनी जड़ पकड़ गई कि पहली कक्षा से कॉलेज की आखिरी कक्षा तक की शिक्षा में विभिन्न भाषाएं सीखना अनिवार्य हो गया। लिखने वाली भाषा माध्यम हो गई। भाषा सीखने के लिए मस्तिष्क के विशिष्ट हिस्से का विकास जरूरी होता है। इसे कॉग्नेटिव ब्रेन कहते हैं। यदि यह नहीं होगा तो शिक्षा का मौजूदा टूल या माध्यम यानी भाषा सबपर लागू नहीं होती। पुराने समय में ज्ञानेंद्रियों के विकास की अवधारणा हमारे संस्कारों में थी। पढ़ना-लिखना हासिल किया हुआ कौशल होता है। सक्रिय रहकर सीखना पड़ता है। बोलना जन्मजात आता है। दुनिया का ज्ञान, उसका विश्लेषण और उससे निकला निष्कर्ष अनुमान छह इंद्रियों से तय होता है। पांच इंद्रिया छठा काइनेथेटिक्स (भूख, प्यास, संतुलन, बेचैनी आदि अहसास)। अब विचार करने की प्रवृत्ति बढ़ गई। मोमबत्तियां लगाकर सहानुभूति व्यक्त करना। मानव शृंखला बनाना। जाकर मदद करने का सवाल ही नहीं। कंप्यूटर और सूचना क्रांति आने के बाद से हुआ यह कि पर्याप्त अनुभव के पहले ही बहुत अधिक जानकारी मिलने लगी। ज्ञान मिलने लगा। पुराने समय में पहले अनुभव मिलता था और यह समझ विकसित हो जाती थी कि कौन-सी जानकारी लेनी है और कौन-सी नहीं लेनी है। अनुभव की कसौटी पर सूचना को परखा जाता था। अब सूचना की कसौटी पर अनुभव को परखा जा रहा है।
फिर जीवन में संघर्ष की बड़ी बातें होती हैं। यह भी पश्चिम से आई उधार की विचारधारा है। संघर्ष तो मनुष्य जीवन में चलता ही रहता है। हमारे विकास का यह अभिन्न अंग है, इसलिए ऐसा कहना कि मैंने इतना संघर्ष किया और ऐसे आगे आया, व्यर्थ है। कामयाबी मिल जाए तो संघर्ष की बातें करन अच्छा लगता है, लेकिन जिसे कामयाबी मिले उसका सिर्फ संघर्ष, उसकी यशोगाथा नहीं होती। मेरा संघर्ष छोटा था। बचपन में मोहल्ले में गणेशोत्सव होता था। उसमें बच्चों के बहुत से कार्यक्रम होते थे। मैं उनमें भाग लेता था। बच्चे ज्यादा, कार्यक्रम कम। फिर एेन वक्त पर कुछ कार्यक्रम रद्द हो जाते थे। रद्द कार्यक्रमों में ज्यादातर मेरा नंबर लगता था। मेरा संघर्ष यही था। फिर मैं रोता, माता-पिता समझाते। नौवीं तक तो आपके नाटक की तारीफ होती है। फिर दसवीं में जाकर कहा जाता है कि अब नाटक बंद करो और पढ़ाई पर ध्यान दो। मैंने पढ़ाई में भी अच्छा प्रदर्शन किया और मुझे नाटक जारी रखने दिया गया। मैं कई पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेता था, लेकिन मेडिकल में जाने के बाद चुनाव करना पड़ा, क्योंकि अब सारी गतिविधियों में भाग लेना संभव नहीं था।
अभिनय में मैं इससे लिए आगे बढ़ा, क्योंकि मुझे ख्यात निर्देशक जब्बार पटेल जैसे कई गुणी लोगों का साथ मिला। स्कूल से लेकर कॉलेज तक रंगमंच के जो लोग मिलते चले गए, वे बहुत अच्छे लोग थे। नाटक देेखे बगैर चैन नहीं मिलता था। नाटक में काम किए बिना चैन नहीं मिलता था। हमने जो काम किया है, उसे देखे बिना चैन नहीं मिलता था। मैं चोरी से सिनेमा देखने जाता था। यह सब मैं शौक के तौर पर करता था, लेकिन छड़ी लेकर अनुशासन देने का काम जब्बार पटेल ने किया। वे इतने परेशान करते थे कि उन पर गुस्सा जाता था। हमारा एक ग्रुप था। सिनेमा या नाटक देखकर आने के बाद शाम को चर्चा होती तो वे पूछते तुमने क्या देखा। अच्छा लगा कि बुरा था? अच्छा लगा तो क्या अच्छा लगा। शुरू सवाल-जवाब। परीक्षा शुरू हो जाती। बाद में तो ऐसा होने लगा कि सिनेमा देखने जाता तो परदे पर जब्बार पटेल ही दिखने लगते।
जीवन में उम्मीदभरा दृष्टिकोण इन सब चरणों से गुजरता है। यह आता है अनुभव से और अनुभव मिलता है कर्म से, इसलिए ज्यादा विचार करने की बजाय कर्म में उतरना चाहिए। संघर्ष को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानेंगे तो निराशा, नकारात्मकता छुएगी नहीं। अनुभव की कसौटी पर परखकर जरूरी जानकारी प्राप्त करे। इस तरह दिमाग मेें कोलाहल नहीं मचेगा। चिंतन में स्थिरता आएगी और फिर उसे वांछित लक्ष्य पर केंद्रित किया जा सकेगा।
सूचना क्रांति से हुआ यह है कि पर्याप्त अनुभव के पहले ही बहुत अधिक जानकारी मिलने लगी। अनुभव से यह समझ विकसित होती है कि कौन-सी जानकारी लेनी है और कौन-सी नहीं।
अनुभव से विचार और विचार से कर्म, यह जल्दी होना चाहिए। मौजूदा समाज विचार पर ही अटक जाता है। मोर्चे निकालना, मानव शृंखला बनाना। फिर कर्म के नाम पर यह सब होता है।
अनुभव से विचार और विचार से कर्म, यह जल्दी-जल्दी होना चाहिए, लेकिन मौजूदा समाज विचार पर ही अटक जाता है। कर्म की उपेक्षा हो जाती है। अनुभव और शिक्षा के संबंध को भी देखना होगा। शिक्षित यानी जो पढ़-लिख सके। यह अवधारणा इतनी जड़ पकड़ गई कि पहली कक्षा से कॉलेज की आखिरी कक्षा तक की शिक्षा में विभिन्न भाषाएं सीखना अनिवार्य हो गया। लिखने वाली भाषा माध्यम हो गई। भाषा सीखने के लिए मस्तिष्क के विशिष्ट हिस्से का विकास जरूरी होता है। इसे कॉग्नेटिव ब्रेन कहते हैं। यदि यह नहीं होगा तो शिक्षा का मौजूदा टूल या माध्यम यानी भाषा सबपर लागू नहीं होती। पुराने समय में ज्ञानेंद्रियों के विकास की अवधारणा हमारे संस्कारों में थी। पढ़ना-लिखना हासिल किया हुआ कौशल होता है। सक्रिय रहकर सीखना पड़ता है। बोलना जन्मजात आता है। दुनिया का ज्ञान, उसका विश्लेषण और उससे निकला निष्कर्ष अनुमान छह इंद्रियों से तय होता है। पांच इंद्रिया छठा काइनेथेटिक्स (भूख, प्यास, संतुलन, बेचैनी आदि अहसास)। अब विचार करने की प्रवृत्ति बढ़ गई। मोमबत्तियां लगाकर सहानुभूति व्यक्त करना। मानव शृंखला बनाना। जाकर मदद करने का सवाल ही नहीं। कंप्यूटर और सूचना क्रांति आने के बाद से हुआ यह कि पर्याप्त अनुभव के पहले ही बहुत अधिक जानकारी मिलने लगी। ज्ञान मिलने लगा। पुराने समय में पहले अनुभव मिलता था और यह समझ विकसित हो जाती थी कि कौन-सी जानकारी लेनी है और कौन-सी नहीं लेनी है। अनुभव की कसौटी पर सूचना को परखा जाता था। अब सूचना की कसौटी पर अनुभव को परखा जा रहा है।
फिर जीवन में संघर्ष की बड़ी बातें होती हैं। यह भी पश्चिम से आई उधार की विचारधारा है। संघर्ष तो मनुष्य जीवन में चलता ही रहता है। हमारे विकास का यह अभिन्न अंग है, इसलिए ऐसा कहना कि मैंने इतना संघर्ष किया और ऐसे आगे आया, व्यर्थ है। कामयाबी मिल जाए तो संघर्ष की बातें करन अच्छा लगता है, लेकिन जिसे कामयाबी मिले उसका सिर्फ संघर्ष, उसकी यशोगाथा नहीं होती। मेरा संघर्ष छोटा था। बचपन में मोहल्ले में गणेशोत्सव होता था। उसमें बच्चों के बहुत से कार्यक्रम होते थे। मैं उनमें भाग लेता था। बच्चे ज्यादा, कार्यक्रम कम। फिर एेन वक्त पर कुछ कार्यक्रम रद्द हो जाते थे। रद्द कार्यक्रमों में ज्यादातर मेरा नंबर लगता था। मेरा संघर्ष यही था। फिर मैं रोता, माता-पिता समझाते। नौवीं तक तो आपके नाटक की तारीफ होती है। फिर दसवीं में जाकर कहा जाता है कि अब नाटक बंद करो और पढ़ाई पर ध्यान दो। मैंने पढ़ाई में भी अच्छा प्रदर्शन किया और मुझे नाटक जारी रखने दिया गया। मैं कई पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेता था, लेकिन मेडिकल में जाने के बाद चुनाव करना पड़ा, क्योंकि अब सारी गतिविधियों में भाग लेना संभव नहीं था।
अभिनय में मैं इससे लिए आगे बढ़ा, क्योंकि मुझे ख्यात निर्देशक जब्बार पटेल जैसे कई गुणी लोगों का साथ मिला। स्कूल से लेकर कॉलेज तक रंगमंच के जो लोग मिलते चले गए, वे बहुत अच्छे लोग थे। नाटक देेखे बगैर चैन नहीं मिलता था। नाटक में काम किए बिना चैन नहीं मिलता था। हमने जो काम किया है, उसे देखे बिना चैन नहीं मिलता था। मैं चोरी से सिनेमा देखने जाता था। यह सब मैं शौक के तौर पर करता था, लेकिन छड़ी लेकर अनुशासन देने का काम जब्बार पटेल ने किया। वे इतने परेशान करते थे कि उन पर गुस्सा जाता था। हमारा एक ग्रुप था। सिनेमा या नाटक देखकर आने के बाद शाम को चर्चा होती तो वे पूछते तुमने क्या देखा। अच्छा लगा कि बुरा था? अच्छा लगा तो क्या अच्छा लगा। शुरू सवाल-जवाब। परीक्षा शुरू हो जाती। बाद में तो ऐसा होने लगा कि सिनेमा देखने जाता तो परदे पर जब्बार पटेल ही दिखने लगते।
जीवन में उम्मीदभरा दृष्टिकोण इन सब चरणों से गुजरता है। यह आता है अनुभव से और अनुभव मिलता है कर्म से, इसलिए ज्यादा विचार करने की बजाय कर्म में उतरना चाहिए। संघर्ष को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानेंगे तो निराशा, नकारात्मकता छुएगी नहीं। अनुभव की कसौटी पर परखकर जरूरी जानकारी प्राप्त करे। इस तरह दिमाग मेें कोलाहल नहीं मचेगा। चिंतन में स्थिरता आएगी और फिर उसे वांछित लक्ष्य पर केंद्रित किया जा सकेगा।
सूचना क्रांति से हुआ यह है कि पर्याप्त अनुभव के पहले ही बहुत अधिक जानकारी मिलने लगी। अनुभव से यह समझ विकसित होती है कि कौन-सी जानकारी लेनी है और कौन-सी नहीं।
अनुभव से विचार और विचार से कर्म, यह जल्दी होना चाहिए। मौजूदा समाज विचार पर ही अटक जाता है। मोर्चे निकालना, मानव शृंखला बनाना। फिर कर्म के नाम पर यह सब होता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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