Thursday, November 26, 2015

नजरिया: मजबूत संकल्प के आगे भाग्य भी झुकता है

कोलकाता से 190 किलोमीटर दूर बीरभूम जिले के अपने गांव में हसमतुल्ला मोमिन गमछे बुनते हैं। पैदल चलकर आसपास के गांवों में जाते हैं और इन्हें बेचते हैं। चार गमछे के एक सेट की कीमत करीब 120 रुपए होती है, जिससे उन्हें 20 से 30 रुपए का मुनाफा हो जाता है। अगर वे इसे थोक व्यापारी को देते हैं तो मुनाफा 10 से 15 रुपए ही होता है। पढ़े-लिखे होते तो वे संघर्ष शब्द पर पूरा शब्दकोश लिख सकते थे, इतना संघर्ष उन्हें जीवन
में करना पड़ा है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं।जीवन के इस संघर्घ में परिवार ने उन्हें सहयोग दिया और उन्होंने परिवार को पीछे से सहारा दिया। जहिरुद्‌दीन मोमिन जिसे दोस्त जहीर के नाम से जानते हैं, को कभी भी स्कूल से छुट्‌टी मनाने की इजाजत नहीं थी। वह हमेशा गमछे बनाने में पिता की मदद करता, लेकिन पिता ने कभी उसे तालीम को हल्के में लेने की इजाजत नहीं दी। वे शिक्षा का महत्व समझते थे। सीनियर मोमिन अक्सर ज्यादा काम करते ताकि जूनियर मोमिन को जीवन में आगे बढ़ने का पूरा अवसर मिले। 
जीवन में दो चीजें हमेशा देखी- एक तरफ पिता की कड़ी मेहनत और दूसरी तरफ हमउम्र साथियों की बीमारी। कभी एक तो कभी दूसरी बीमारी हमेशा लगी रहती, क्योंकि बच्चों का ऐसा कोई डॉक्टर नहीं था, जो कम फीस में इलाज करे। हमेशा इस गरीब परिवार के साथ कोई कोई मुसीबत बनी रही। इसके बावजूद जहीर स्कूल में अच्छे अंकों से पास होता रहा, तब भी जब वह कॉमन मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट की तैयारी कर रहा था और तब भी जब कोचिंग क्लासेस उसे मुफ्त पढ़ाने के लिए आगे आई। तकदीर ने उसके लिए हमेशा कुछ अलग ही सोच रखा था। दो साल पहले जब वह प्रवेश परीक्षा देने बीरभूम जिले के सूरी जा रहा था, बस दुर्घटना हो गई। उसकी दायी कोहनी में चोट लगी और वह उम्मीद के मुताबिक पेपर नहीं लिख सका। परीक्षा कक्ष में पहुंचने में 30 मिनट की देरी हो गई। सारे समय उसकी कोहनी में दर्द होता रहा। रैंक खराब आई, लेकिन पिता ने फिर प्रयास करने से मना नहीं किया। जब वह दूसरी बार परीक्षा की तैयारी कर रहा था, ऐसा लगता था कि वह ठीक से पढ़ नहीं पा रहा है, गरीबी उसके चेहरे पर साफ दिखाई पड़ने लगी थी। वह बहुत संवेदनशील लड़का था। पढ़ते समय उसे लगता था कि उसे बाहर निकलकर कुछ काम करना चाहिए और परिवार की मदद करना चाहिए, लेकिन पिता की कड़ी मेहनत और उसे यहां तक लाने के परिवार के संघर्ष ने उसे खुद पर काबू पाने के लिए प्रेरित किया। यही भावना उसकी प्रेरणा बनी और इसी ने सफलता हासिल करने के लिए मजबूत बनाया। 
अब वक्त में आगे जाते हैं नवंबर 2015 में। जहीर कोलकाता के एक मॉल के बाहर खड़ा है और सिनेमा हॉल में जाने और पसंद की मूवी देखने के आकर्षण से बाहर आने की पूरी कोशिश कर रहा है। फिल्म देखने के लिए उसे 80 रुपए खर्च करने होंगे, जबकि किताब नहीं मिली तो इन रुपयों से वह किताब की फोटोकॉपी करवा सकता है। मॉल से 14 किलोमीटर दूर कमराथी में उसका कॉलेज है - कॉलेज ऑफ मेडिसिन और सागोर दत्त हॉस्पिटल, जहां वह एमबीबीएस का प्रथम साल का छात्र है। उसने कॉलेज के अपने सीनियर छात्रों से किताबें और प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए जरूरी स्कैलेटन सेट देने का अनुरोध किया था। सीनियर छात्रों ने उसे टीचर्स से संपर्क करने को कहा। प्राध्यापकों ने उसे स्कॉलरशिप के लिए आवेदन देने की सलाह दी। पिछले शनिवार को वह साइंस सिटी के मंच पर था, जहां उसे निर्मल चंद्र कुमार मेमोरियल स्कॉलरशिप फॉर नॉलेज एनहैंसमेंट दी गई। उसे पूरा भरोसा है कि अगले पांच सालों में एक नया बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सामने आएगा जो अगली पीढ़ी की सेहत को संवारेगा, क्योंकि बचपन से वह अपने आसपास स्वास्थ्य सुविधाओं और डॉक्टरी सहायता का अभाव देखता रहा है। 
फंडा यह है कि अगर आपकी इच्छा शक्ति मजबूत है तो किस्मत भी आपके आगे झुकती है और बेहतर भविष्य के लिए रास्ता देती है।  

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साभारभास्कर समाचार 
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