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प्राचीन लोककथा है। एक बार पशुओं और पक्षियों में विवाद हो गया। दोनों
स्वयं को एक-दूसरे से अधिक ताकतवर बता रहे थे। दोनों पक्षों के बीच
तर्क-वितर्क हो रहा था, जिसने कुछ समय बाद संघर्ष का रूप ले लिया। निर्णय
कराने वाला कोई नहीं था। अत: दोनों पक्ष अपनी पूरी ताकत से लड़ने लगे।
चमगादड़ों ने इस लड़ाई में किसी का पक्ष नहीं लिया। उन्होंने सोचा, 'हम
पक्षियों की तरह उड़ते हैं, अत: पक्षियों में शामिल हो सकते हैं। दूसरी ओर
हमारे पक्षियों जैसे पंख नहीं होते और हम उनकी तरह अंडे भी नहीं देते। हम
तो स्तनपायी हैं। अत: हम पशुओं में भी शामिल हो सकते हैं। अब इन दोनों में
से जो भी जीतेगा हम उसी के दल में शामिल हो जाएंगे।' ऐसा सोचकर चमगादड़ हाथ
पर हाथ धरे दोनों पक्षों के बीच संघर्ष देखते रहे।
एक बिंदु पर आकर ऐसा
लगा कि पशुओं की विजय होने वाली है। यह महसूस होते ही चमगादड़ पशु दल में शामिल हो गए। थोड़े ही समय बाद
पक्षी दल का पलड़ा भारी हो गया। उन्हें जीत के करीब जाते देख चमगादड़ पशु
दल छोड़कर पक्षी दल में शामिल हो गए। अंतत: न किसी पक्ष की हार हुई न जीत।
दोनों पक्षों ने परस्पर संधि कर ली। इस प्रकार पशु और पक्षी मित्र बन गए,
किंतु दोनों ही दलों ने चमगादड़ों का स्वार्थी स्वभाव समझ लिया था, इसलिए
उन्होंने चमगादड़ों का बहिष्कार कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि तभी से
चमगादड़ अंधेरे कोटरों में रहने लगे, क्योंकि वे अकेले थे और उनका कोई
मित्र नहीं था। वे शाम के धुंधलके में ही बाहर निकलते हैं, क्योंकि तब तक
सारे पक्षी अपने घोंसलों में जा चुके होते हैं और जंगली पशु रात में ही
अपनी गुफा से बाहर आते हैं। इस लोककथा से सबक मिलता है कि स्वार्थी सदा
एकाकी रहते हैं, क्योंकि वे निजी हितों को महत्व देते हैं। अन्यों की
उपेक्षा के कारण ही स्वार्थी लोगों को कोई मित्र नहीं बनाता।
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साभार: भास्कर समाचार
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