Monday, November 16, 2015

फर्क लाने के लिए कभी-कभार क्लास रूम को थिएटर में बदलें

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
यह क्लासरूम जरा अलग तरह का था। इसमें युवा छात्र नहीं थे। पेंट और कमीज पहने पुरुष थे जबकि उनकी महिला सहपाठी साड़ियां पहने थीं। किंतु चलती कक्षा में अचानक जोर से हंसने की आवाज हुई और हम सोचने लगे कि दूसरों को अनुशासित करने वाले लोग कहां गए। इस आवाज के कारण पड़ोस में चल रही कम उम्र छात्रों की कक्षा से विद्यार्थी उठकर देखने लगे। शोर इसलिए हुआ था, क्योंकि ये शिक्षक 'कलाकला वगुप्पराई' के हिस्से थे, जिसका तमिल में मतलब था 'लाफ्टर क्लासरूम' और जो तमिलनाडु के मदुराई में चलाई जा रही थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। शिक्षकों के शिक्षक एन. राजकुमार ने उन सभी को अपनी आंखें बंद करके सावधानी से सुनने को कहा। ठीक इस अंदाज में जैसे कोई प्रायमरी टीचर बच्चों से कहता है। फिर वे एक सिक्का जमीन पर गिराते हैं और भागीदारों को रेंगकर सिक्के की आवाज से अनुमान लगाकर सिक्का उठाने को कहते हैं। और अचानक पांच फीट से पांच फीट छह इंच ऊंचाई के स्वस्थ्य शरीर वाले लोग सिक्के की तलाश में रेंगने लगते हैं। शोरगुल इसी एक्टिविटी के कारण हो रहा था। दूर से यह सब देख रहे बच्चे शरारत से मुस्करा रहे थे, तालियां बजा रहे थे। और राजकुमार तो सिर्फ अपने छात्रों के व्यक्तित्व की बर्फ तोड़कर उन्हें उनके सीमित दायरे से बाहर निकाल रहे थे। इस तरह के खेल लोगों को थिएटर के लिए तैयार करते हैं। और फिर वे उन्हें जहां उनकी मर्जी हो, वहां बैठने को कहते हैं। किसी दीवार से लगकर बैठना हो या उनकी टेबल के कितने भी नज़दीक बैठना हो, सब मंजूर था। फिर वे बताते हैं कि क्लासरूम में बैठक व्यवस्था के कड़े नियमों का पालन करने की कोई जरूरत नहीं। वे कहते हैं, 'टीचर को कक्षा की व्यवस्था के साथ प्रयोग करने चाहिए, इससे छात्र-विद्यार्थी के बीच का फासला कम करने में मदद मिलती है।' और छात्र की भूमिका में आए सारे टीचर इससे सहमत थे। अध्यापन पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित 'बियांड ब्लैकबोर्ड' और 'स्कूल ऑफ लाइफ' जैसी फिल्में भी शिक्षकों की उस कार्यशाला में दिखाई गई। 
थिएटर का मतलब सिर्फ मंच पर अभिनय करना ही नहीं होता। यह जीवन का अविभाज्य अंग है। दैनिक आधार पर हम सब गाहे-बगाहे चेहरे के भाव, आवाज के उतार-चढ़ाव और देहबोली (बॉडी लैंग्वेज) के जरिये अभिनय करते रहते हैं। व्यक्ति को अपने आसपास के वातावरण के प्रति संवेदनशील बनाना और जितना संभव हो उसे उतना अभिव्यक्त करने में सक्षम बनाना ही थिएटर का मूल विचार है। युवा मनों में इसके बीज बोने से बढ़कर बेहतर क्या हो सकता है। तब जाकर वे जिम्मेदार नागरिक के रूप में विकसित होंगे, ऐसा राजकुमार का मानना है। स्कूल शिक्षकों के लिए अध्यापन के तौर-तरीकों पर इनोवेटिव वर्कशाप संचालित करने के उद्‌देश्य से समान विचारों वाले शिक्षकों ने ही 'कलाकला वगुप्पराई' स्थापित किया है। इसके पीछे शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक फर्क लाने की इच्छा रखने वाले शिक्षकों को साथ लाने का विचार है। नई पीढ़ी के ऐसे शिक्षक, जो कुछ अलग सोच रहे हैं और कक्षा में विभिन्न प्रयोगों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं, वे इस मंच का पूरा लुत्फ उठा रहे हैं। 
ये शिक्षक जब अपने स्कूलों में लौटते हैं तो उनकी आंखों में चमक होती है, दिल में कुछ करने की आग होती है और कल्पनाशक्ति को पंख लगे होते हैं। वे अपने अनुभव की कहानियां सुनाने लगते हैं। अब प्रशिक्षित शिक्षक तय विचारों और रिहर्सल की तरह दोहराई गई पंक्तियों के साथ नहीं लौटते,क्योंकि बच्चों के साथ यह सब काम नहीं आता। उन्होंने यह सीखा है कि वे खुद उनमें से एक कैसे बनें और दुनिया को बच्चों की आंखों से कैसे देखें। आज वे जिन चरित्रों की बातें बताते हैं उनसे बच्चे अपने आयुवर्ग के मुताबिक तुरंत जुड़ जाते हैं। बच्चों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इनमें से ज्यादातर शिक्षकों ने दोतरफा संवाद शुरू किया है और बच्चे जानते हैं कि उन्हें बोलने का मौका मिलेगा। 
कक्षा में नाट्यमंच के प्रवेश से छात्रों के कुल व्यक्तित्व विकास में मदद मिलती है और उन्हें अपना हुनर निखारने में यह बहुत सहायक होता है। एक शिक्षिका ने स्वीकार किया किरंगमंच की गतिविधियों का प्रवेश कराने के बाद उसने अंतर्मुखी बच्चों को धुआंधार वक्ताओं में बदलते देखा है। 
फंडायह है कि कभी-कभाररंगमंच में बदला क्लासरूम बच्चों के कुल व्यक्तित्व विकास में चमत्कार ला देता है। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभारभास्कर समाचार 
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