लेखिका: क्लेयर केन मिलर
इक्कीसवीं सदी में कॉलेज कैसे होने चाहिए? शिक्षाविदों के इस सवाल का एक जवाब है, ′ग्लोबल′। मगर इसके मायने जूनियर कक्षाओं में विदेश में कुछ समय के लिए पढ़ाई का मौका या फिर विदेश में इंटर्नशिप से कुछ ज्यादा होने चाहिए। दरअसल फिलहाल कॉलेज कैंपस ऐसे विद्यार्थियों को तैयार कर रहे हैं, जो इस वैश्वीकृत दुनिया के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाते। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इससे अध्यापन के परंपरागत तरीके खासकर लेक्चर पद्धति पर भी सवाल खड़े होते हैं, जिसके जरिये विद्यार्थियों को ऐसी जानकारियां दी जा रही हैं, जो पहले ही ऑनलाइन उपलब्ध हैं। अब जरा एक उभरते हुए नजरिये पर विचार करें। विद्यार्थियों को अलग-अलग देशों के कैंपसों में जाने का मौका मिले और इसी दौरान वे अपनी अंडरग्रेजुएट डिग्री भी प्राप्त कर लें। इस नजरिये के मुताबिक विद्यार्थी कॉलेज के ज्यादातर वर्ष अपने देश से बाहर के कॉलेजों में बिताएगा। इससे विद्यार्थियों को विभिन्न संस्कृतियों को समझने का मौका मिलेगा। विदेशी शहर ही उनकी कक्षाएं होंगी। इस संबंध में क्लेटन क्रिस्टेंसन इंस्टीट्यूट के सह-संस्थापक माइकल बी हॉर्न का कहना है, ′खासकर समृद्ध परिवारों के विद्यार्थी अब महसूस कर रहे हैं कि वे मूलभूत ज्ञान इंटरनेट से ले सकते हैं और उसके बाद दुनिया भर से जो अनुभव उन्हें मिलता है, उससे उन्हें एक बेहतर इंसान बनने में मदद मिलती है।′ मगर एक कैंपस से दूसरा कैंपस बदलने की यह पद्धति सभी के लिए नहीं है। कई विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जो वर्षों तक एक कैंपस में मिले माहौल को बदलना ही नहीं चाहते। यह देखा गया है कि 18 वर्ष की उम्र में जो विद्यार्थी शिक्षा पाने के इस अपरंपरागत तरीके को अपनाना पसंद करते हैं, उनमें परिपक्वता, जिज्ञासु प्रवृत्ति, साहसिकता, लचीलापन और खुलापन जैसे गुण मौजूद होते हैं।
18 वर्ष के डब्ल्यू लुईस ब्रिकमैन के सामने विकल्प के तौर पर कॉलेजों की कोई कमी नहीं थी। न्यूयॉर्क के प्रतिष्ठित हंटर कॉलेज के विद्यार्थी के तौर पर उनके सामने बहुत-से बेहतर लिबरल आर्ट कॉलेजों और दो रिसर्च यूनिवर्सिटियों का विकल्प था। मगर उन्होंने सैन्ा फ्रांसिस्को के मिनर्वा स्कूल को चुनकर अपने शिक्षकों और मित्रों को हैरत में डाल दिया। अब वह अपना तीन-चौथाई समय दूसरे देशों में गुजारेंगे। बर्लिन में जन्मे और मैनहट्टन में पले-बढ़े ब्रिकमैन कहते हैं, ′दूसरे देशों की यात्राओं को लेकर मैं बहुत रोमांचित हूं। चार वर्ष तक एक ही जगह पर टिके रहना मुझे मुनासिब नहीं लग रहा था।′ केक ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट से संबद्ध मिनर्वा स्कूल की स्थापना पूर्व टेक्नोलॉजी एग्जीक्यूटिव बेन नेल्सन ने की थी। उनका मानना है कि परंपरागत कॉलेज अपने विद्यार्थियों को वास्तविक दुनिया की चुनौतियों से निपटने के लिए ठीक ढंग से तैयार नहीं कर रहे हैं। सैन फ्रांसिस्को में कॉलेज के पहले वर्ष की पढ़ाई के बाद यहां के विद्यार्थी हर सेमेस्टर में एक नए देश की ओर रुख करेंगे। ग्रेजुएट की डिग्री मिलने तक वे जर्मनी, अर्जेंटीना, दक्षिण कोरिया, भारत, तुर्की और इंग्लैंड में रह चुके होंगे। मिनर्वा की पहली दो कक्षाओं में 35 देशों के 139 विद्यार्थी हैं। लीज पर लिए गए आवासीय भवनों में वे साथ रहते हैं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। अपने लिए भोजन वे खुद बनाते हैं। लाइब्रेरी, म्यूजियम या पार्क में वे सेमिनार करते हैं। इससे मिनर्वा में पढ़ाई का कुल खर्च भी कम ही पड़ता है। मिनर्वा में मानविकी, विज्ञान और बिजनेस जैसे परंपरागत क्षेत्रों में पढ़ाई के अलावा विद्यार्थियों को तर्कपूर्ण ढंग से सोचने और दूसरों के साथ बेहतर ढंग से संवाद करने पर खास जोर दिया जाता है। मिनर्वा स्कूल के संस्थापक डीन स्टीफेन कॉस्लिन बताते हैं, ′हम विद्यार्थियों को उन नौकरियों के लिए तैयार कर रहे हैं, जो अभी अस्तित्व में ही नहीं हैं। इसके लिए हम उन्हें हरसंभव ज्ञान दे रहे हैं।'
इक्कीस वर्ष की क्लेरिसा गॉर्डन उस वक्त को याद करती हैं, जब वह भारत में पढ़ रही थीं। एक पेपर की परीक्षा सिर पर थी, और बिजली की बड़ी समस्या थी। इस वजह से वह अपने प्रोफेसर को ई-मेल तक नहीं कर पा रही थीं। मगर उन्होंने महसूस किया कि ऐसे अनुभवों से उतना ही सीखने को मिलता है, जितना कि परीक्षाओं से। वह कहती हैं, ′हमें ऐसे शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया जाता है, जहां पढ़ाई के लिए पूरी तरह से अनुकूल हालात नहीं होते। इससे हमें दूसरे लोगों को समझने और उनकी तरह रहने का मौका मिलता है। मुझे लगता है कि इससे हमें अपने अस्तित्व को बचाने की समझ मिलती है।′ ऐसे ही एक स्कूल एलआईयू ग्लोबल के डीन कहते हैं, ′इस दुनिया और यहां की समस्याओं को हम अपने कॉलेज के सिलेबस की तरह लेते हैं।′
गणित और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की वरिष्ठ विद्यार्थी मैक्नेलिस ′प्राचीन यूनान में शहरी जीवन′ विषय के अध्ययन के लिए इस सेमेस्टर का कुछ समय यूनान में बिता रही हैं। वह रोम, लंदन और मैड्रिड में भी रह चुकी हैं। आर्कियोलॉजी पर उन्होंने इंटर्नशिप भी आयरलैंड में पूरी की है। उनका मानना है कि विदेश में परंपरागत शिक्षा की तुलना में अध्ययन की इस पद्धति ने उन्हें विभिन्न तरह के अनुभव दिए हैं। वह कहती हैं, ′ये छुट्टियां नहीं हैं, यह सीखने की यात्रा है। हमें यह जानने का मौका मिलता है, कि दुनिया में अलग-अलग तरह के लोग हैं, जिनकी अलग-अलग इच्छाएं, विचार और उद्देश्य हैं। एक बेहद विनम्र एहसास होता है, जब हमें महसूस होता है कि हम सब एक हैं।′
हैती-अमेरिकी मूल की गोर्डन न्यूजर्सी में बड़ी हुईं और अभी वह त्रिनिदाद एवं टोबेगो में आर्ट की पढ़ाई कर रही हैं। वह मार्के की बात कहती हैं, यात्रा में जो कुछ सीखने मिलता है, वह किसी और शिक्षा से नहीं, फिर आप भारत में रिक्शे की सवारी कर रहे हों या फिर तिब्बत के किसी मठ में बैठे हों। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं।
यदि विद्यार्थियों को अलग-अलग देशों के कैंपसों में जाने का मौका मिले, तो वे अपनी अंडरग्रेजुएट डिग्री भी प्राप्त कर लेंगे और उन्हें विभिन्न संस्कृतियों को समझने का मौका भी मिलेगा।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: अमर उजाला समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.