एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
आठ साल की उम्र में रूमी नए और अपने पहले रोजदार दाताओं की भावनाओं को भांप गई और अलग-अलग ट्रांसपोर्ट साधनों का इस्तेमाल कर गांव लौट आई। एक साल बाद भी उसके संघर्ष की कहानी जारी रही और तकदीर उसे पटना ले आई। उसे नौकरी देने वाले ने फिर स्कूल भेजने का वादा करके नहीं निभाया तो वह 10 दिन में ही वापस गई। उसने माता-पिता से कह दिया कि वह काम नहीं करेगी, बल्कि घर के पास सरकारी स्कूल में पढ़ाई करेगी।
उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया। किसी साथी से उसने अपने गांव बुर्मू के रहवासी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के बारे में सुना। उसने कक्षा आठवीं के लिए खुद ही आवेदन कर दिया लेकिन, फिर उसे झटका लगा। माता-पिता ने कहा कि तुम्हारी शादी की उम्र हो गई है। तब उसकी उम्र सिर्फ 13 साल थी। उसने तय कर लिया कि जो उसकी बहनों के साथ हुआ वह अपने साथ नहीं होने देगी। उसने माता-पिता और उनके साथियों के खिलाफ जैसे अकेले ही लड़ाई छेड़ दी हो। किसी तरह का बहलाव-फुसलाव उसकी योजना को बदल नहीं सका। उसने ब्लॉक एजुकेशन एक्सटेंशन अधिकारी से बात की। उन्हें परिवार की स्थिति के बारे में बताया और यह भी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है। उसकी हिम्मत काम आई और आज वह अपने 12वीं के रिजल्ट का इंतजार कर रही है। उसका कॅरिअर रोडमैप स्पष्ट है। जितने प्रतिशत अंक उसे हासिल होंगे उस आधार पर वह तय करेगी कि उसे नर्स बनना है या पुलिस में जाना है। वह समाज में कुछ करना चाहती है। वह जानती है कि अपने भले कि लिए किस तरह लड़ाई लड़नी है। उसने अपने अपने माता-पिता को भी मनाकर लिया है कि वे दहेज के लिए 16 साल की उम्र में भाई की शादी नहीं करेंगे।
फंडा यह है कि कोई भी आपकी लड़ाई नहीं लड़ेगा। अपनी लड़ाई आपको खुद ही लड़नी होगी और यही आपको आत्म-गौरव से भर देगा।
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मेरी नियमित यात्राओं में मैंने शोषण के कई स्तर देखे हैं। पहला स्तर है, मैं बहुत गरीब हूं और अनपढ़ भी हूं, इसलिए मुझे नहीं पता कि मेरे कई अधिकार हैं, इसलिए मैं इन्हें इस्तेमाल भी नहीं कर सकता। दूसरी लेयर हो
सकती है- मैं जानता हूं मेरे कई अधिकार और हक हैं, लेकिन मैं यह नहीं जानता कि इनका लाभ कैसे लूं। इन दोनों स्तरों पर लड़ाई अधिकारियों, मीडिया और सरकार को साथ लेकर लड़ी जा सकती है। तीसरे स्तर का शोषण सबसे बुरा है और अधिकतर युवा यह लड़ाई लड़ने में अक्षम हैं। उनसे हर बातचीत में एक आम सवाल हमेशा मेरे सामने आता है कि कैसे मैं पेरेंट्स को यह समझाऊं कि मैं अपना जीवन अपनी पसंद के अनुसार जीना चाहता हूं, वैसा नहीं जैसा उन्हें पसंद है? इस सवाल का जवाब मैं 18 साल की रूमी कुमारी की कहानी के जरिये देना चाहता हूं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वह झारखंड के रांची से 35 किमी दूर बुर्मू गांव की है। आठ बच्चों वाले गरीब खेतिहर मजदूर परिवार में जन्मी रूमी के आसपास के जीवन में स्कूल का कोई स्थान नहीं था। उसकी तीन बड़ी बहनें स्कूल नहीं जाती थीं। उनकी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी और वे बहुत कम उम्र में मां भी बन गईं। दस साल पहले रूमी के गरीब माता-पिता ने उसे सिमडेगा में एक अमीर परिवार में घरेलू काम के लिए भेज दिया। ताकि परिवार को उसके भरण-पोषण का खर्च उठाना पड़े। साथ ही वह परिवार के लिए कुछ कमाई भी कर सके। रूमी इसलिए तैयार हो गईं कि नौकरी देने वाले परिवार ने वादा किया था कि उसे पढ़ाने के लिए नज़दीक के स्कूल में भी भेजेंगे। सिमडेगा रहने के लिए बुर्मू से बेहतर जगह है। राजधानी रांची से सिमडेगा 120 किलोमीटर की दूरी पर है, जबकि रांची से बुर्मू सिर्फ 35 किमी की दूरी पर है और आने-जाने में 35 से 40 मिनट का समय लगाता है। आठ साल की उम्र में रूमी नए और अपने पहले रोजदार दाताओं की भावनाओं को भांप गई और अलग-अलग ट्रांसपोर्ट साधनों का इस्तेमाल कर गांव लौट आई। एक साल बाद भी उसके संघर्ष की कहानी जारी रही और तकदीर उसे पटना ले आई। उसे नौकरी देने वाले ने फिर स्कूल भेजने का वादा करके नहीं निभाया तो वह 10 दिन में ही वापस गई। उसने माता-पिता से कह दिया कि वह काम नहीं करेगी, बल्कि घर के पास सरकारी स्कूल में पढ़ाई करेगी।
उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया। किसी साथी से उसने अपने गांव बुर्मू के रहवासी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के बारे में सुना। उसने कक्षा आठवीं के लिए खुद ही आवेदन कर दिया लेकिन, फिर उसे झटका लगा। माता-पिता ने कहा कि तुम्हारी शादी की उम्र हो गई है। तब उसकी उम्र सिर्फ 13 साल थी। उसने तय कर लिया कि जो उसकी बहनों के साथ हुआ वह अपने साथ नहीं होने देगी। उसने माता-पिता और उनके साथियों के खिलाफ जैसे अकेले ही लड़ाई छेड़ दी हो। किसी तरह का बहलाव-फुसलाव उसकी योजना को बदल नहीं सका। उसने ब्लॉक एजुकेशन एक्सटेंशन अधिकारी से बात की। उन्हें परिवार की स्थिति के बारे में बताया और यह भी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है। उसकी हिम्मत काम आई और आज वह अपने 12वीं के रिजल्ट का इंतजार कर रही है। उसका कॅरिअर रोडमैप स्पष्ट है। जितने प्रतिशत अंक उसे हासिल होंगे उस आधार पर वह तय करेगी कि उसे नर्स बनना है या पुलिस में जाना है। वह समाज में कुछ करना चाहती है। वह जानती है कि अपने भले कि लिए किस तरह लड़ाई लड़नी है। उसने अपने अपने माता-पिता को भी मनाकर लिया है कि वे दहेज के लिए 16 साल की उम्र में भाई की शादी नहीं करेंगे।
फंडा यह है कि कोई भी आपकी लड़ाई नहीं लड़ेगा। अपनी लड़ाई आपको खुद ही लड़नी होगी और यही आपको आत्म-गौरव से भर देगा।
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साभार: भास्कर समाचार
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