इन्हें स्कूल में एडमिशन नहीं मिल रहा था। कारण, देख नहीं सकते थे। आठ साल के थे तो एक दिन गुल्ली डंडा खेलते समय गुल्ली आंख पर लग गई। दादी तुरंत इलाज के लिए हकीम के पास ले गईं। उसने जाने कैसे लेप लगा दिया कि आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई। यहीं से शुरू हुआ इनका संघर्ष। कोई स्कूल दाखिला
नहीं दे रहा था। ये बात चुभी तो जीवनभर याद रही। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। बड़े हुए तो दृष्टिबाधितों के अधिकारों के लिए मुहिम छेड़ दी। 800 दृष्टिबाधित छात्राओं का अब तक स्कूल में एडमिशन करवा चुके हैं। यह कहानी है छत्तीसगढ़ के जीअार पटेल की। इन्हें हाल ही में दृष्टिबाधितों को शिक्षा से जोड़ने के लिए केंद्रीय राज्य मंत्री विजय सांपला ने सम्मानित किया है। राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ के मुताबिक 71 वर्षीय पटेल ने पिछले 32 सालों में 800 से ज्यादा दृष्टिहीन बच्चियों को पहले ढूंढ़ा फिर उनका स्कूलों में एडमिशन करवाया। ये वे बच्चियां हैं जो दृष्टिहीन होने की वजह से स्कूल जाने में कतराती थीं या परिवार उन्हें पढ़ाना नहीं चाहता था। भास्कर से बातचीत करते हुए पटेल बताते हैं कि मुझे बचपन में हादसे के बाद दृष्टिबाधित स्कूल में कक्षा-1 में एडमिशन लेना पड़ा, जबकि उस समय मैं चौथी क्लास में पढ़ रहा था। नौवीं में एडमिशन लेने का वक्त आया तो फिर स्कूल ने मना कर दिया। किसी तरह प्राचार्य को राजी किया। कॉलेज मेंे भी शिक्षामंत्री के दखल के बाद ही प्रवेश मिला। स्कूल में पढ़ते थे तो लोग मजाक बनाते थे लेकिन मैं घबराया नहीं। अर्द्धवार्षिक और फिर वार्षिक परीक्षा में जब मैंने क्लास में टॉप किया तब लोगों का व्यवहार मेरे लिए बदला।
स्कूल में जो भी पढ़ाया जाता, उसे सुनकर याद करने की कोशिश करता था। हर रविवार को दोस्तों को बुलकार उनसे पढ़ता फिर ब्रेल में लिखकर प्रैक्टिस करता। मेरे स्कूल टीचर रहे देवदान देव के कहने पर दृष्टिबाधितों के लिए इंटरनेशनल ट्रेनिंग प्रोग्राम का फॉर्म भरा। अमेरिका के बोस्टन कॉलेज ऑफ स्टूडेंट में दृष्टिबाधितों के पुनर्वास पर प्रशिक्षण लिया। यहां दुनिया भर से 55 लोग आए थे। मैं अपने देश से अकेला था। वापस आया तो अंध मूक बधिर स्कूल में सुपरिटेंडेंट और छत्तीसगढ़ का पहला ब्रेल प्रेस में डिप्टी डायरेक्टर बना। छत्तीसगढ़ में दृष्टिहीन लड़कियों का एक भी स्कूल नहीं था। स्कूल के लिए बच्चों को जुटाने की कोशिश की तो एक साल में केवल एक परिवार ही पढ़ाने को राजी हुआ। कोशिश जारी रखी 2005 में कक्षा-1 का सात बच्चियों का पहला बैच शुरू हुआ। अब स्कूल में 69 लड़कियां पढ़ने रही हैं। अब पटेल जगदलपुर में दृष्टिहीन लड़कियों के लिए बने स्कूल को 12वीं तक करने में लगे हुए हैं। कहते हैं कि आठ साल तक सरकार से स्कूल के लिए जमीन की मांग की लेकिन मदद नहीं मिली। खुद जमीन ढूंढ़ी। फिर राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ को मदद के लिए राजी कर लिया। यह छत्तीसगढ़ में दृष्टिहीन लड़कियों का पहला स्कूल है, जो पटेल के प्रयास से शुरू हुआ था। 2008 में वे बिलासपुर के अंधू मूकबघिर विद्यालय के अधीक्षक पद से रिटायर हुए थे। उनकी मुहिम जारी है।
राष्ट्रपति भी कर चुके हैं सम्मान: एकबार मुझे कलेक्टर ने पूरे बस्तर मेंं दृष्टिहीन बच्चों की गणना करने का काम दिया। सर्वे में ऐसी 216 बच्चियों की खोज की। बाद में इन्होंने खुद के प्रयास से 70 बच्चियों का स्कूल में प्रवेश दिलाया। खुश होकर विभाग ने इनका नाम नेशनल अवॉर्ड के लिए भेजा। 1984 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इन्हें सम्मानित किया।
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साभार: भास्कर समाचार
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