नोट: इस पोस्ट को सोशल साइट्स पर शेयर/ ईमेल करने के लिए इस पोस्ट के नीचे दिए गए बटन प्रयोग करें।
Post
published at www.nareshjangra.blogspot.com
क्या देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर
के तत्कालीन राज्य प्रमुख शेख अबदुल्ला को उनकी कश्मीर नीति पर इसी तरह से
अड़े रहने की सलाह दी थी। एक बार तो इस बात पर भरोसा नहीं होता कि नेहरू
ऐसा कर सकते हैं। शेख अब्दुल्ला ने अपनी किताब आतिशे चिनार में बताया है कि
दिल्ली में एक बैठक के दौरान नेहरू ने उनके कान में कहा कि आप कश्मीर
मामले पर ऐसे ही हिचकिचाएं तो हम आपके गले में सोने की जंजीर पहना देंगे। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ जो भी कदम उठाए
उन्हे वह रियासत के
बहुसंख्यक वर्ग के हित में किए गए कार्य बताते हैं।
उन्होंने अपनी पुस्तक में इस बात का कई बार उल्लेख किया है कि हिंदू राजा
द्वारा बहुसंख्यक मुसलमानों का सालों से शोषण किया जा रहा था। यही बात उनको
नागवार गुजर रही थी। उनके द्वारा कश्मीर में छेड़ा गया आंदोलन कोई
देशद्रोह नहीं बल्कि लंबे समय तक शोषण का शिकार रही आबादी को जगाने का जन
आंदोलन था।
आप हिचकिचाएं तो हम सोने की जंजीर पहना देंगे: शेख अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक में बताया है कि 'दिल्ली समझौते को
अंतिम रूप देने के लिए केन्द्र की ओर से जवाहरलाल नेहरू, मौलाना
आजाद, गोपाल स्वामी आय्यंगर और सर गिरिजाशंकर वाजपेयी बातचीत में हिस्सा ले
रहे थे और रियासत की तरफ से मैं, बख्शी गुलाम मोहम्मद और मिर्जा अफजल बेग
भाग ले रहे थे। मुझे याद है जब समझौते की किसी धारा पर बहस हो रही थी तो
जवाहरलाल ने मेरे कान में बड़े मनोहर अंदाज के साथ कहा, 'शेख साहब, अगर आप
हमारे साथ बगल में खड़े होने में हिचकिचाएंगे तो हम आपके गले में सोने की
जंजीर पहना देंगे। मैं जवाहरलाल को एक क्षण देखता रह गया। लेकिन दूसरे क्षण
मैंने मुस्कराते हुए कहा कि, 'ऐसा कभी न कीजिएगा क्योंकि इस तरह आप कश्मीर से हाथ धो बैठेंगे।'
मैं कश्मीर आंदोलन का प्रवर्तक हूं: 'हिंदुस्तान के वातावरण को मेरे अस्तित्व के विरुद्ध खड़ा करने के
लिए जो मुहिम चलायी जा रही थी उसके पीछे जो कारण थे उन पर एक दृष्टि डालना
कश्मीर की राजनीति की पेचीदगियों को समझने के लिए अनिवार्य है। सबसे पहली
बात जो मेरे विरोधियों को खटकती थी यह थी कि मैं कश्मीर आंदोलन का प्रवर्तक
हूं और सदियों के बाद मैंने यहां की सोई हुई आबादी को एक नई जिंदगी से
अवगत कराया। संयोग से जागने वालों का बहुसंख्यक वर्ग मुसलमान था और शासक
वर्ग हिंदू था। इसलिए बहुत से हिंदू पहले दिन से ही इस स्थिति को पसंद नहीं
करते थे।
कश्मीर के हिंदू नहीं करते थे शेख को पसंद: शेख अब्दुल्ला ने पुस्तक में बताया है कि घाटी के अधिकतर हिंदू उन्हें
पसंद नहीं करते थे। उन्होंने मुझे अपना शत्रु समझ लिया। इस बात का सबूत
पंजाब और दिल्ली के हिंदू अखबारों में छपी खबरों से मिल जाता है। 1931 से
आज तक किसी न किसी रंग में और किसी न किसी मसले पर मेरे विरुद्ध ज़हर उगलते
रहे हैं। कई बार मेरे कामों से मेरे मुसलमान भाई भी खुश न हो सके। लेकिन
इन अख़़बारों पर दुर्भावना की ऐसी ऐनक चढ़ी हुई है कि वह भी इसे मेरी
चालाकी समझते रहे। यह इन अख़बारों का दोष नहीं बल्कि उस मानसिकता का
करिश्मा है जिसका यह प्रतिनिधित्व करते हैं।
मैंने रियासत की भलाई की और बन गया देश का दुश्मन: मैंने आजादी के बाद कुछ ऐसे सुधारों को लागू कर दिया जिनमें संयोग से
शासक वर्ग के शोषक तत्वों पर चोटें पहुंची और उनका अधिकांश लाभ संयोगवश
बहुसंख्यक वर्ग को पहुंचा। यह और बात है कि उनसे लाभान्वित होने वालों में
लाखों हरिजन और दूसरे गैर-मुस्लिम भी थे। चूंकि वह लोग निम्न वर्ग से संबंध
रखते थे और ख़ामोश थे इसलिए हिंदू संप्रदायवादियों की निगाह उनकी तरफ नहीं
गयी। एक और बात यह थी कि अविभाजित हिंदुस्तान की रियासतों को आमतौर पर
उनकी आबादी की संरचना के स्थान पर उनके शासकों के धर्म के आधार पर बांट
दिया गया था और इसी हवाले से उन्हें हिंदू, मुसलमान या सिख रियासतों के
अंतर्गत सम्मिलित किया जाता था।
कश्मीर और हैदराबाद में थी एक उल्टी समानता: हैदराबाद के अवाम की बहुसंख्यक आबादी हिंदुओं की थी लेकिन मुसलमान उसे मुस्लिम रियासत ही समझते थे। इसके विपरीत जम्मू
एवं कश्मीर की रियासत की पचासी प्रतिशत से अधिक आबादी यद्यपि मुसलमान थी
तथापि हिंदू उसे एक हिंदू रियासत ही मानते थे। शेष रियासतों का हाल भी
न्यूनाधिक ऐसा ही था। रियासते-कश्मीर में निरंकुशता के विरुद्ध जो संघर्ष
मैंने शुरू किया था वह राजा के विरुद्ध न था बल्कि एक व्यवस्था के विरुद्ध
था। लेकिन इसको कोई नहीं समझता था।
मेहर ने कहा था राजा का राज खत्म हो: यह स्थिति हिंदुओं तक सीमित नहीं थी बल्कि मुसलमान भी इसका शिकार थे
और मैं इस संबंध में मौलाना गुलाम रसूल मेहर का वह वाकिया बयान कर चुका हूं
जब उन्होंने कश्मीर की बात करते हुए कहा था कि वहां से हिंदू महाराजा का आधिपत्य समाप्त होना चाहिए। लेकिन मेरे टोकने पर कि फिर ऐसा ही मामला हैदराबाद
में भी पेश आना चाहिए, वह बोल पड़े थे कि 'हैदराबाद की बात दूसरी है। हम
उसके लिए कई कश्मीर क़ुर्बान कर सकते हैं।" कुछ आदरणीय व्यक्ति इसके अपवाद
थे। मसलन गांधी जी और जवाहरलाल।
Post
published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting
Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking
HERE .
Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other
important updates from each and every field.