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क्या महात्मा गांधी देश के विभाजन के समय कश्मीर रियासत का विलय
पाकिस्तान में हो, के पक्षधर थे। एकाएक तो इस बात पर भरोसा नहीं होता। पर,
कश्मीर के पहले राज्य प्रमुख शेख अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक "आतिशे चिनार" में
बताया है कि इस राज्य में मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण महात्मा
गांधी इस रियासत का विलय पाकिस्तान में करने के पक्षधर थे। तत्कालीन नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख शेख अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक
में लिखा है कि गांधीजी ने एक बार कहा था, 'चूंकि कश्मीर में मुसलमानों का
बहुमत है अतः उसका विलय पाकिस्तान में हो जाना चाहिए।' शेख ने किताब में
लिखा है 'मैंने चूंकि कश्मीर के एक हिंदू शासक के विरुद्ध विद्रोह करने की
हिम्मत दिखाई थी इसलिए हिंदू संप्रदायवादियों की आंखों में हमेशा के लिए
चुभने वाला कांटा बनकर रह गया। हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद हिंदुओं और
मुसलमानों में परस्पर अविश्वास का वातावरण इस प्रकार बना हुआ था कि हर
मुसलमान को हिंदुस्तान में शंका की निगाह से देखा जाता था। ऐसी स्थिति में
मेरी बिसात क्या थी। मौलाना आजाद जैसी महान हस्ती को भी इस इल्जाम से बरी
नहीं रखा गया। इसी कारण मेरे कार्यों को आशंका की निगाह से देखा जाता था।'
महाराजा हरिसिंह ने बनाया था शेख के खिलाफ वातावरण: शेख अब्दुल्ला लिखते हैं कि महाराजा हरि सिंह के खानदानी शासन का
उन्मूलन, इस व्यवस्था की छांव में पलने वाले एक बड़े वर्ग के हितों पर चोट
की हैसियत रखता था। भला वह इसके लिए क्यों मेरा स्वागत करते। अतः उन्होंने
रियासत में मेरे खिलाफ वातावरण बनाने के लिए अपनी तिजोरियों के मुंह खोल
दिए। इन्हीं तत्वों ने भारत के संप्रदायवादियों से गठबंधन करके जम्मू
में प्रजा परिषद के आंदोलन को उकसाया और एक विधान, एक निशान और एक
प्रधान के नारे को अपना युद्धनाद बना लिया। वह इस तथ्य को भलीभांति समझते
थे कि महाराजा हरि सिंह के परिवार को राज सिंहासन को फिर से सौंप देना संभव
नहीं है किंतु भारत का चक्कर घुमाकर कश्मीर के मुसलमानों को अब भी दबाया जा सकता है।
क्या अब्दुल्ला के कारण कश्मीर भारत से मिला: अब्दुल्ला ने अपनी किताब में लिखा है मेरे बिना कश्मीर का भारत के साथ
अधिमिलन असंभव था। भारत के साथ रिश्ता जोड़ने में शेख अब्दुल्ला के
प्रबुद्ध और प्रगतिशील विचारों के अतिरिक्त भारत में मौलाना आजाद, गांधीजी
और जवाहरलाल जैसे मित्रों एवं शुभचिंतकों की मौजूदगी भी एक निर्णायक कारण
बनी। शेख हमेशा कहते थे कि भारत के साथ रिश्ते की गांठ आदर्शों से जुड़ी
है। यह आदर्शों की गांठ लगते देर न लगी थी कि उनके मोह भंग की प्रक्रिया
शुरू हो गई, तथापि आशा की किरण ने कभी साथ न छोड़ा। वास्तव में देखा जाए तो
जहां भारतीय नेताओं का संघर्ष आजादी के बाद समाप्त होता है वहीं शेख
अब्दुल्ला का असली संघर्ष सत्तारूढ़ होने के बाद शुरू होता है। इस दृष्टि
से यदि यह कहा जाए कि 'आतिशे-चिनार' एक मोह भंग की दास्तान है तो यह बात
अनुचित न होगी।
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साभार: भास्कर समाचार
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