तुफैल अहमद (वरिष्ठ पत्रकार)
पिछले दशकों के आंकड़े गवाह हैं कि मदरसों में पढ़ने वाले भारतीय मुसलमान भौतिकशास्त्री, अर्थशास्त्री, चार्टर्ड अकाउंटेंट, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, डॉक्टर और यहां तक कि राजनीतिज्ञ भी नहीं बन पाते। मदरसे मुसलमानों को सार्वजनिक जीवन से बाहर रखने के कारक बन जाते हैं। हां, कुछ मदरसों के छात्र आधुनिक पेशे में प्रवेश पा लेते हैं, लेकिन इसमें मदरसों की भूमिका नहीं है, बल्कि यह उनका व्यक्तिगत सद्प्रयास है। पिछले दशक इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण हैं कि मुख्यत: मदरसे जाने वाले मुस्लिम बच्चे मौलाना, शायर, मस्जिदों के इमाम, तबलीगी जमात और जमात-ए- इस्लामी में पाए जाने वाले धार्मिक उपदेशक या जमियत उलेमा-ए-हिंद की तरह के राजनीतिक मुफ्तखोर ही बन पाते हैं। यह आम तौर पर देखा जा सकता है कि मदरसे मुस्लिम बच्चों के विकल्प सीमित कर देते हैं जबकि स्कूल उनके जीवन में चुनाव का दायरा बढ़ा देते हैं। दरअसल, जब बच्चे को देश-दुनिया के बारे में सोचने-विचारने-जानने के लिए तैयार करना चाहिए, मदरसे उसी अवस्था में उनके दिमाग को कुंद कर देते हैं।
इसलिए यह सुनिश्चित करना भारत सरकार का धर्म है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था मुसलमानों के लिए भी उसी तरह की हो जिस तरह यह गैर मुसलमानों के लिए है। मदरसों और वैदिक संस्थाओं को ‘गैर स्कूल’ के रूप में मान्यता देने और उनके बच्चों को ‘स्कूल के दायरे से बाहर’ मानने का महाराष्ट्र सरकार का कदम एक सामान्य प्रशासनिक फैसला है जो नागरिकों- चाहे वे मुसलमान हों या गैरमुसलमान, के लिए जीवन में रास्ता चुनने का दायरा बढ़ाएगा। यह कदम सिर्फ मुसलमानों पर केंद्रित नहीं है। वस्तुत: यह महाराष्ट्र सरकार के एक सर्वेक्षण पर आधारित है और यह सुनिश्चित करने के लिए है कि 6 से 14 साल उम्र के सभी बच्चे स्कूल जाएं। यह संवैधानिक लक्ष्य है जो भारत सरकार ने तय किया है और इसमें सभी बच्चों को शामिल किया गया है- चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, ईसाई हों या कोई और। इसलिए महाराष्ट्र सरकार ने उन मदरसों को स्कूल के तौर पर अमान्य घोषित कर दिया है जो गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की शिक्षा नहीं देते। शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून के अंतर्गत गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान में शिक्षण का स्तर न पूरा करने वाले मदरसे और वैदिक संस्थान पहले से ही अमान्य हैं। महाराष्ट्र सरकार आरटीई कानून को सिर्फ लागू कर रही है। शिक्षा एकमात्र प्रभावी जरिया है जो नागरिकों को सशक्त बनाती है। इस बात के प्रमाण हैं कि मदरसों में पढ़े बच्चे जीवन में आगे बढ़ने में विफल रहते हैं क्योंकि उन्हें पढ़ाए गए विचार और उन्हें दी गई कुशलता उन्हें समाज में ही अलग-थलग कर देती है। समाज का शेष हिस्सा तो फल-फूल रहा है, मुसलमान बदहाल बस्तियों में रहने को विवश हैं। मदरसों की भूमिका मुस्लिम बच्चियों के सार्वजनिक जीवन के दरवाजे की कुंडी बंद करने की रह गई है, लेकिन केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रलय ने इस बड़ी समस्या की तरफ से आंखें बंद कर रखी हैं।
इस्लाम का विस्तार करने के मुख्य लक्ष्य वाले मदरसों के साथ गंभीर समस्या है। आम भाषा में कहें तो मदरसे दो तरह के हैं। एक, मुसलमानों द्वारा स्थापित मदरसे जो कुरान, हदीस (हजरत पैगंबर साहब की बताई बातों और कामों) और इस्लामी शिक्षा के बारे में पढ़ाते हैं। कुछ जगह वे थोड़ी-बहुत हिंदी, अंग्रेजी और गणित भी पढ़ाते हैं। ऐसे मदरसे दान पर चलते हैं और अपनी गतिविधियों के लिए किसी सरकार के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। दो, बिहार जैसे कुछ राज्यों में मदरसों को अपने पाठ्यक्रम में विज्ञान, गणित और समाज विज्ञान शामिल करने के लिए सरकार से राशि मिलती है। इन मामलों में यह साफ है कि राज्य सरकार की राशि के कुछ हिस्से का उपयोग कुरान, हदीस और इस्लामी शिक्षा के अध्ययन पर भी खर्च किया जाता है। बिहार में मदरसों के सभी शिक्षकों को सरकार से वेतन मिलते हैं। यह संविधान का उल्लंघन है। संविधान में सरकार के पंथनिरपेक्ष रहने की बात कही गई है।
संविधान की धारा 30 (1) के अंतर्गत धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को ‘अपनी इच्छा के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उसका प्रबंधन करने का अधिकार है।’ संविधान ‘शैक्षणिक संस्थान’ की परिभाषा नहीं देता, लेकिन कुरान, हदीस और इस्लामी शिक्षा संविधान का उद्देश्य नहीं है और इसलिए धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसे ‘शैक्षणिक संस्थान’ नहीं कहे जा सकते। मदरसे और वैदिक संस्थाएं धर्म की शिक्षा देती हैं और इन्हें धारा 25 का लाभ मिल सकता है जो ‘धर्म अपनाने, व्यवहार में लाने और उसका प्रचार करने के मुक्त अधिकार’ की गारंटी देती है। महत्वपूर्ण यह है कि हर भारतीय बच्चे को- चाहे वह मुसलमान हो या कोई और, धारा 21 (क) के अंतर्गत नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के मूलभूत अधिकार की गारंटी दी गई है और इसलिए दिन में स्कूल की अवधि के दौरान 6 से 14 साल की उम्र के हर बच्चे को स्कूल में होना चाहिए। समस्या थोड़ी बड़ी है। मदरसों में मुसलमानों को आधुनिक जीवन के लिए तैयार करने की ख्वाहिश नहीं है। उनका एकमात्र लक्ष्य कुरान की शिक्षा देना और इस्लाम के प्रचार के लिए बच्चे को तैयार करना है। राज्य सरकारों से अनुदान मिले या नहीं, मदरसे इसी उद्देश्य को पूरा करने में जुटे हुए हैं। स्वाभाविक रूप से मदरसे से निकलने वाले बच्चे आधुनिक समाज के लिए अनुपयोगी होते हैं। कैरो के अल-अजहर विश्वविद्यालय के बाद दारूल उलूम, देवबंद दूसरा सबसे बड़ा मदरसा है। हाल के वषों में उसके द्वारा दिए गए कुछ फतवों पर नजर दौड़ाएं- अपने मंगेतर से बात करना हराम है; मुसलमानों को बैंक में काम नहीं करना चाहिए; रक्तदान करना अधार्मिक कृत्य है; सेलफोन पर पत्नी को ‘तलाक, तलाक, तलाक’ कहना वैध तलाक है; इस्लाम में अभिनय की मनाही है; महिलाएं काजी (न्यायाधीश) नहीं बन सकतीं; किशोरियों को साइकिल की सवारी नहीं करनी चाहिए आदि-आदि।
कुछ इस्लामी कट्टरपंथी और उनके वामपंथी समर्थक तर्क देते हैं कि फतवा महज सलाह देने वाले विचार हैं। वे भूल जाते हैं कि ये विचार मुसलमानों के जीवन पर ज्यादा प्रभाव डालते हैं। चाहे ये फतवे औपचारिक रूप से जारी किए जाएं या नहीं, इन फतवों में व्यक्त किए गए विचार सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया के मदरसों में पढ़ाए जाते हैं। भारत में मदरसों से निकलने वाले बच्चे इन फतवों पर आधारित मूल्य व्यवस्था की रचना करते हैं। यही नहीं, दारूल उलूम, देवबंद जैसे मदरसों से निकलने वाले ग्रैजुएट इसी तरह के अनगिनत मदरसों की स्थापना करते हैं, इसी तरह के अधोगामी विचारों की शिक्षा देते हैं, अपने समाज में बेकार हो जाने वाले लोग पैदा करते हैं और अपने पड़ोस में ऐसे ही दबी-कुचली बस्तियों की रचना करते हैं। हर मदरसा एक छोटा-मोटा दारूल उलूम, देवबंद है जो अपने पड़ोस में रहन-सहन का दिशा-निर्देश देता है। कुछ विश्लेषक तर्क देते हैं कि एक फीसद मुसलमान बच्चे भी मदरसे में पढ़ने नहीं जाते, लेकिन मदरसा जाने वाले ये एक फीसद मुसलमान ही शेष बचे 99 फीसद मुसलमानों पर शासन करते हैं।
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साभार: जागरण
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