एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
जब मैं अपने फर्स्ट क्लास एसी कंपार्टमेंट में सवार हुआ तो जिस कैबिन में मेरी बर्थ बुक थी वहां बहुत भीड़ थी। मुझे ऐसी भीड़ की आदत है, क्योंकि मुझे मालूम है किसी परिवार या संस्थान का कोई 'बड़ा आदमी' यात्रा करता है तो बहुत सारे लोग उसे छोड़ने स्टेशन पर आते हैं। मैं बाहर इंतजार करता रहा कि वे मुझे रास्ता देंगे। अंदर की चार बर्थ में से तीन 'बड़े आदमी' और उसके दो सहायकों ने ले रखी थी। मैं चौथा यात्री था। अंदर चर्चा चल रही थी, 'पापाजी, जरा परे हटिए, मैं बिस्तर लगा देता हूं।' वह युवा उस ब्लैकेंट को बिछा रहा था, जो असल में यदि यात्री को ठंड महसूस हो तो रात में ओढ़ने के लिए था। इसलिए दूसरे सहायक ने आपत्ति जताते हुए कहा, 'फिर वे ओढ़ेंगे क्या।' बिस्तर लगाने वाले स्मार्ट सहायक ने कहा, 'कि फरक यार, चौथे यात्री का ब्लैंकेट ले लो, उसे करने दो अपनी व्यवस्था।' और पलक झपकाए बिना उस ग्रुप ने वह ब्लैंकेट खींच लिया, जो मेरे लिए था और उस बुजुर्ग को दे दिया, जिसके चेहरे पर मुस्कान थी। मुझे समझ में नहीं आया कि मुस्कान खुद के लिए ब्लैंकट हासिल करने के लिए थी या अपने सहायकों की चतुराई के लिए। चूंकि मैं रेलवे का दिया ब्लैंकेट छूता भी नहीं इसलिए इससे मुझे कोई चिंता नहीं थी। लेकिन मुझे यह चिंता थी 'बड़े आदमी' ने इस अनैतिक कृत्य को रोकने की कोशिश नहीं की या उसे थोड़ा भी अपराध बोध नहीं था, क्योंकि अगली सुबह दिल्ली में उतरने के पहले उन्होंने मुझसे ऐसे बात की जैसे उन्हें छोड़कर पूरी दुनिया भ्रष्ट है।
इससे मुझे अपने दिल्ली के मित्र डॉ. पीयूष कुमार की याद आ गई, जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम के राष्ट्रपति भवन से विदा होने के बाद उनके आधिकारिक आवास में कॉफी बनाने वाली मशीन लगाना चाहते थे, क्योंकि उनके यहां देशभर से मिलने वाले आते रहते थे। कलाम साहब ने उन्हें कहा, 'पीयूष मैं इन कथित मेहमानों को नहीं बुलाता। वे यहां आते हैं, क्योंकि वे मुझे चाहते हैं। चूंकि मैं ठीक तय समय पर उनसे मिलता हूं और उनसे कभी इंतजार नहीं करवाता हूं, इसलिए उन्हें कॉफी या चाय पिलाना मेरा दायित्व नहीं है। फिर तुम तो मशीन लगा दोगे लेकिन, उसमें नियमित रूप से चाय-कॉफी कौन भरेगा?' इसके अलावा इसका खर्च सरकार को देना पड़ेगा और मैं सरकार पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहता।' स्पष्ट कहूं तो वे बिना कोई संदेह के बड़े आदमी थे।
बरसों पहले मेरी किसी से अचानक मुलाकात तय हुई और मैंने ड्राइवर को कार तेजी से चलाने को कहा। मेरे ड्राइवर ने सिग्नल तोड़ा और हमारी कार एक बुजुर्ग सिपाही ने पकड़ ली। मेरा ड्राइवर दलील देता रहा कि उसने कार आगे बढ़ाई तब पीली लाइट थी, जबकि सिपाही का कहना था कि ' वह चौराहा पार हुआ तब लाल लाइट थी।' फिर वह मेरी तरफ मुड़ा और उसने कहा, 'सर, यदि आप कह देंगे कि ड्राइवर ने सिग्नल नहीं तोड़ा तो मैं कार को इसी वक्त जाने दूंगा।' मेरा विश्वास मानिए वह सिपाही मेरा चेहरा पढ़ सकता था। मैंने एक सेकंड के लिए मेरे ड्राइवर की आंखों में देखा वे याचना कर रही थीं फिर भी मैंने कहा, 'उसने सिग्नल तोड़ा।' सिपाही ड्राइवर को साइड में ले गया और कहा, 'मैं तुम्हें तुम्हारे मालिक के कारण जाने दे रहा हूं। जीवन में ईमानदार होना सीखिए, इसका फायदा मिलेगा।' और शायद वह आखिरी मौका था जब मेरे ड्राइवर ने किसी ट्रैफिक सिग्नल का उल्लंघन किया था।
फंडा यह है कि  किसी परिवार या संस्थान के सारे 'बड़े आदमी' कभी अपने रिश्तेदारों या कर्मचारियों को उनके लिए सुविधाएं जुटाने में गलत तरीके इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित नहीं करते। वे सुनिश्चित करते हैं कि वे वांछित सुविधा प्राप्त करने के लिए सही तरीके का इस्तेमाल करें।
साभार: भास्कर समाचार
इस शुक्रवार रात को मैं नई दिल्ली की ट्रेन पकड़ने के लिए श्रीगंगानगर स्टेशन की ओर तेजी से जा रहा था। जब मैं रात 10:40 बजे रवाना होने वाली ट्रेन के लिए 10:20 बजे वहां पहुंचा तो देखा कि ट्रेन पहले ही आ चुकी है और
यात्री उसमें सवार हो चुके हैं। जब मैं अपने फर्स्ट क्लास एसी कंपार्टमेंट में सवार हुआ तो जिस कैबिन में मेरी बर्थ बुक थी वहां बहुत भीड़ थी। मुझे ऐसी भीड़ की आदत है, क्योंकि मुझे मालूम है किसी परिवार या संस्थान का कोई 'बड़ा आदमी' यात्रा करता है तो बहुत सारे लोग उसे छोड़ने स्टेशन पर आते हैं। मैं बाहर इंतजार करता रहा कि वे मुझे रास्ता देंगे। अंदर की चार बर्थ में से तीन 'बड़े आदमी' और उसके दो सहायकों ने ले रखी थी। मैं चौथा यात्री था। अंदर चर्चा चल रही थी, 'पापाजी, जरा परे हटिए, मैं बिस्तर लगा देता हूं।' वह युवा उस ब्लैकेंट को बिछा रहा था, जो असल में यदि यात्री को ठंड महसूस हो तो रात में ओढ़ने के लिए था। इसलिए दूसरे सहायक ने आपत्ति जताते हुए कहा, 'फिर वे ओढ़ेंगे क्या।' बिस्तर लगाने वाले स्मार्ट सहायक ने कहा, 'कि फरक यार, चौथे यात्री का ब्लैंकेट ले लो, उसे करने दो अपनी व्यवस्था।' और पलक झपकाए बिना उस ग्रुप ने वह ब्लैंकेट खींच लिया, जो मेरे लिए था और उस बुजुर्ग को दे दिया, जिसके चेहरे पर मुस्कान थी। मुझे समझ में नहीं आया कि मुस्कान खुद के लिए ब्लैंकट हासिल करने के लिए थी या अपने सहायकों की चतुराई के लिए। चूंकि मैं रेलवे का दिया ब्लैंकेट छूता भी नहीं इसलिए इससे मुझे कोई चिंता नहीं थी। लेकिन मुझे यह चिंता थी 'बड़े आदमी' ने इस अनैतिक कृत्य को रोकने की कोशिश नहीं की या उसे थोड़ा भी अपराध बोध नहीं था, क्योंकि अगली सुबह दिल्ली में उतरने के पहले उन्होंने मुझसे ऐसे बात की जैसे उन्हें छोड़कर पूरी दुनिया भ्रष्ट है।
इससे मुझे अपने दिल्ली के मित्र डॉ. पीयूष कुमार की याद आ गई, जिन्होंने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम के राष्ट्रपति भवन से विदा होने के बाद उनके आधिकारिक आवास में कॉफी बनाने वाली मशीन लगाना चाहते थे, क्योंकि उनके यहां देशभर से मिलने वाले आते रहते थे। कलाम साहब ने उन्हें कहा, 'पीयूष मैं इन कथित मेहमानों को नहीं बुलाता। वे यहां आते हैं, क्योंकि वे मुझे चाहते हैं। चूंकि मैं ठीक तय समय पर उनसे मिलता हूं और उनसे कभी इंतजार नहीं करवाता हूं, इसलिए उन्हें कॉफी या चाय पिलाना मेरा दायित्व नहीं है। फिर तुम तो मशीन लगा दोगे लेकिन, उसमें नियमित रूप से चाय-कॉफी कौन भरेगा?' इसके अलावा इसका खर्च सरकार को देना पड़ेगा और मैं सरकार पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहता।' स्पष्ट कहूं तो वे बिना कोई संदेह के बड़े आदमी थे।
बरसों पहले मेरी किसी से अचानक मुलाकात तय हुई और मैंने ड्राइवर को कार तेजी से चलाने को कहा। मेरे ड्राइवर ने सिग्नल तोड़ा और हमारी कार एक बुजुर्ग सिपाही ने पकड़ ली। मेरा ड्राइवर दलील देता रहा कि उसने कार आगे बढ़ाई तब पीली लाइट थी, जबकि सिपाही का कहना था कि ' वह चौराहा पार हुआ तब लाल लाइट थी।' फिर वह मेरी तरफ मुड़ा और उसने कहा, 'सर, यदि आप कह देंगे कि ड्राइवर ने सिग्नल नहीं तोड़ा तो मैं कार को इसी वक्त जाने दूंगा।' मेरा विश्वास मानिए वह सिपाही मेरा चेहरा पढ़ सकता था। मैंने एक सेकंड के लिए मेरे ड्राइवर की आंखों में देखा वे याचना कर रही थीं फिर भी मैंने कहा, 'उसने सिग्नल तोड़ा।' सिपाही ड्राइवर को साइड में ले गया और कहा, 'मैं तुम्हें तुम्हारे मालिक के कारण जाने दे रहा हूं। जीवन में ईमानदार होना सीखिए, इसका फायदा मिलेगा।' और शायद वह आखिरी मौका था जब मेरे ड्राइवर ने किसी ट्रैफिक सिग्नल का उल्लंघन किया था।
फंडा यह है कि  किसी परिवार या संस्थान के सारे 'बड़े आदमी' कभी अपने रिश्तेदारों या कर्मचारियों को उनके लिए सुविधाएं जुटाने में गलत तरीके इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित नहीं करते। वे सुनिश्चित करते हैं कि वे वांछित सुविधा प्राप्त करने के लिए सही तरीके का इस्तेमाल करें।