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भारतीय गणतंत्र में राज्य (भारत) की कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से चलाने के लिए 'संसद' की व्यवस्था की गयी है। भारतीय संसद के दो अंग हैं: लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा
निचली प्रतिनिधि सभा है जबकि राज्यसभा भारतीय लोकतंत्र की उपरी प्रतिनिधि सभा है। इसमें 250 सदस्य होते जिसमे से 12 सदस्य भारत के
राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत होते हैं। इन्हें नामित सदस्य कहाँ जाता
हैं। अन्य सदस्यों का चुनाव होता
हैं। राज्यसभा में सदस्य 6 साल के लिए
चुने जाते हैं, जिनमे एक-तिहाई सदस्य हर 2 साल में सेवा-निवृत्त होते हैं। भारत के उपराष्ट्रपति (वर्तमान में मोहम्मद हामिद अंसारी) राज्यसभा के सभापति होते हैं। राज्यसभा का पहला सत्र 13 मई 1952 को आयोजित किया गया था। राज्यसभा की आधिकारिक वेबसाइट पर जाने के लिए यहाँ क्लिक करें।
राज्य सभा के सदस्य: संविधान के अनुच्छेद 80 में राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250
निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित
किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि
होते हैं। तथापि, राज्य सभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें
से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली तथा पुडुचेरी के
प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित हैं। राष्ट्रपति
द्वारा नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें
साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान
या व्यावहारिक अनुभव है।
सीटों का आवंटन: संविधान की चौथी अनुसूची में राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों
को सीटों के आवंटन का प्रावधान है। सीटों का आवंटन प्रत्येक राज्य की
जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। राज्यों के पुनर्गठन तथा नए राज्यों के
गठन के परिणामस्वरूप, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को आवंटित राज्य सभा
में निर्वाचित स्थानों की संख्या वर्ष 1952 से लेकर अब तक समय-समय पर बदलती
रही है।
सदस्यता के लिए योग्यता: संविधान के अनुच्छेद 84 में संसद की सदस्यता के लिए अर्हताएं निर्धारित की गई हैं।
राज्य सभा की सदस्यता के लिए अर्ह होने के लिए किसी व्यक्ति के पास
निम्नलिखित अर्हताएं होनी चाहिए:
- उसे भारत का नागरिक होना चाहिए और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेना चाहिए या प्रतिज्ञान करना चाहिए और उस पर अपने हस्ताक्षर करने चाहिए।
- उसे कम से कम तीस वर्ष की आयु का होना चाहिए।
- उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं होनी चाहिए जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएं।
कौन नहीं हो सकता राज्यसभा सांसद: संविधान के अनुच्छेद 102 में यह निर्धारित किया गया है कि कोई व्यक्ति संसद
के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए अयोग्य कब होगा
- यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है।
- यदि वह विकृतचित (पागल) है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है।
- यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है।
- यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली हे या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है।
- यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है।
द्विवार्षिक/ उप-चुनाव: राज्य सभा एक स्थायी सदन है और यह भंग नहीं होता। तथापि, प्रत्येक दो वर्ष
बाद राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्य सेवा-निवृत्त हो जाते हैं। पूर्णकालिक
अवधि के लिए निर्वाचित सदस्य छह वर्षों की अवधि के लिए कार्य करता है। किसी
सदस्य के कार्यकाल की समाप्ति पर सेवानिवृत्ति को छोड़कर अन्यथा उत्पन्न
हुई रिक्ति को भरने के लिए कराया गया निर्वाचन 'उप-चुनाव' कहलाता
है।उप-चुनाव में निर्वाचित कोई सदस्य उस सदस्य की शेष कार्यावधि तक सदस्य
बना रह सकता है जिसने त्यागपत्र दे दिया था या जिसकी मृत्यु हो गई थी या जो
दसवीं अनुसूची के अधीन सभा का सदस्य होने के लिए निरर्हित हो गया था।
पीठासीन अधिकारी: राज्य सभा के पीठासीन अधिकारियों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे सभा की
कार्यवाही का संचालन करें। भारत के उपराष्ट्रपति राज्य सभा के पदेन सभापति
हैं। राज्य सभा के सदस्यो के विपरीत राज्यसभा के सभापति का कार्यकाल 5 वर्ष का ही होता है, राज्य सभा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति का भी चयन
करती है। राज्य सभा में उपसभाध्यक्षों का एक पैनल भी होता है, जिसके
सदस्यों का नामनिर्देशन सभापति, राज्य सभा द्वारा किया जाता है। सभापति और
उपसभापति की अनुपस्थिति में, उपसभाध्यक्षों के पैनल से एक सदस्य सभा की
कार्यवाही का सभापतित्व करता है। लोक सभा के विपारित राज्यसभा का सभापति
अपना त्यागपत्र उपसभापति को नही बल्कि राष्ट्रपति को देता है।
महासचिव: महासचिव की नियुक्ति राज्य सभा के सभापति द्वारा की जाती है और उनका
रैंक संघ के सर्वोच्च सिविल सेवक के समतुल्य होता है। महासचिव गुमनाम रह कर
कार्य करते हैं और संसदीय मामलों पर सलाह देने के लिए तत्परता से पीठासीन
अधिकारियों को उपलब्ध रहते हैं। महासचिव राज्य सभा सचिवालय के प्रशासनिक
प्रमुख और सभा के अभिलेखों के संरक्षक भी हैं। वह राज्य सभा के सभापति के
निदेश व नियंत्रणाधीन कार्य करते हैं।
राज्यसभा और लोकसभा के बीच सम्बन्ध: संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अधीन, मंत्री परिषद् सामूहिक रूप से लोक
सभा के प्रति जिम्मेदार होती है जिसका आशय यह है कि राज्य सभा सरकार को बना
या गिरा नहीं सकती है। तथापि, यह सरकार पर नियंत्रण रख सकती है और यह
कार्य विशेष रूप से उस समय बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब सरकार को राज्य
सभा में बहुमत प्राप्त नहीं होता है। किसी सामान्य विधान की दशा में, दोनों सभाओं के बीच गतिरोध दूर करने के
लिए, संविधान में दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक बुलाने का प्रावधान है।
वस्तुत: अभी तक ऐसे तीन अवसर आए हैं जब संसद की सभाओं की उनके बीच
मतभेदों को सुलझाने के लिए संयुक्त बैठक हुई थी। संयुक्त बैठक में उठाये
जाने वाले मुद्दों का निर्णय दोनों सभाओं में उपस्थित और मत देने वाले
सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत से किया जाता है। संयुक्त बैठक संसद भवन के
केन्द्रीय कक्ष में आयोजित की जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभाध्यक्ष
द्वारा की जाती है। तथापि, धन विधेयक की दशा में, संविधान में दोनों सभाओं
की संयुक्त बैठक बुलाने का कोई उपबंध नहीं है, क्योंकि लोक सभा को वित्तीय
मामलों में राज्य सभा की तुलना में प्रमुखता हासिल है। संविधान संशोधन
विधेयक के संबंध में, संविधान में यह उपबंध किया गया है कि ऐसे विधेयक को
दोनों सभाओं द्वारा, संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन विहित रूप में,
विशिष्ट बहुमत से पारित किया जाना होता है। अत: संविधान संशोधन विधेयक के
संबंध में दोनों सभाओं के बीच गतिरोध को दूर करने का कोई उपबंध नहीं है। मंत्री संसद की किसी भी सभा से हो सकते हैं। इस संबंध में संविधान सभाओं
के बीच कोई भेद नहीं करता है। प्रत्येक मंत्री को किसी भी सभा में बोलने
और उसकी कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होता है, लेकिन वह उसी सभा में
मत देने का हकदार होता है जिसका वह सदस्य होता है। इसी प्रकार, संसद की सभाओं, उनके सदस्यों और उनकी समितियों की शक्तियों,
विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों के संबंध में, दोनों सभाओं को संविधान
द्वारा बिल्कुल समान धरातल पर रखा गया है। जिन अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों के
संबंध में दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं वे इस प्रकार हैं:-
राष्ट्रपति का निर्वाचन तथा महाभियोग, उपराष्ट्रपति का निर्वाचन, आपातकाल
की उद्घोषणा का अनुमोदन, राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता से संबंधित
उद्घोषणा और वित्तीय आपातकाल। विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों आदि से
प्रतिवेदन तथा पत्र प्राप्त करने के संबंध में, दोनों सभाओं को समान
शक्तियां प्राप्त हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि मंत्री-परिषद् की सामूहिक जिम्मेदारी के
मामले और कुछ ऐसे वित्तीय मामले, जो सिर्फ लोक सभा के क्षेत्राधिकार में
आते हैं, के सिवाए दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं।
विशेष शक्तियां: एक परिसंघीय सदन होने के नाते राज्य सभा को संविधान के अधीन कुछ विशेष
शक्तियां प्राप्त हैं। विधान से संबंधित सभी विषयों/क्षेत्रों को तीन
सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।
संघ और राज्य सूचियां परस्पर अपवर्जित हैं-कोई भी दूसरे के क्षेत्र में रखे
गए विषय पर कानून नहीं बना सकता। तथापि, यदि राज्य सभा उपस्थित और मत देने
वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह कहते
हुए एक संकल्प पारित करती है कि यह "राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन"
है कि संसद, राज्य सूची में प्रमाणित किसी विषय पर विधि बनाए, तो संसद भारत
के संपूर्ण राज्य-क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए उस संकल्प में
विनिर्दिष्ट विषय पर विधि बनाने हेतु अधिकार-संपन्न हो जाती है। ऐसा संकल्प
अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिए प्रवृत्त रहेगा परन्तु यह अवधि इसी प्रकार
के संकल्प को पारित करके एक वर्ष के लिए पुन: बढ़ायी जा सकती है। यदि राज्य
सभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के
बहुमत द्वारा यह घोषित करते हुए एक संकल्प पारित करती है कि संघ और
राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन किया जाना
राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन है, तो संसद विधि द्वारा ऐसी सेवाओं का
सृजन करने के लिए अधिकार-संपन्न हो जाती है। संविधान के अधीन,
राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपात की स्थिति में, किसी राज्य में संवैधानिक
तंत्र के विफल हो जाने की स्थिति में अथवा वित्तीय आपात की स्थिति में
उद्घोषणा जारी करने का अधिकार है। ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा को संसद की दोनों
सभाओं द्वारा नियत अवधि के भीतर अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है। तथापि,
कतिपय परिस्थितियों में राज्य सभा के पास इस संबंध में विशेष शक्तियाँ हैं।
यदि कोई उद्घोषणा उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है अथवा
लोक सभा का विघटन इसके अनुमोदन के लिए अनुज्ञात अवधि के भीतर हो जाता है और
यदि इसे अनुमोदित करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा अनुच्छेद 352, 356 और
360 के अधीन संविधान में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर पारित कर दिया जाता है,
तब वह उद्घोषणा प्रभावी रहेगी।
सभा का नेता: सभापति और उपसभापति के अलावा, सभा का नेता एक अन्य ऐसा अधिकारी है जो सभा
के कुशल और सुचारू संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य सभा में
सभा का नेता सामान्यतया प्रधान मंत्री होता है, यदि वह इसका सदस्य है, अथवा
कोई ऐसा मंत्री होता है, जो इस सभा का सदस्य है और जिसे उनके द्वारा इस
रूप में कार्य करने के लिए नाम-निर्दिष्ट किया गया हो। उसका प्राथमिक
उत्तरदायित्व सभा में सौहार्दपूर्ण और सार्थक वाद-विवाद के लिए सभा के सभी
वर्गों के बीच समन्वय बनाए रखना है। इस प्रयोजनार्थ, वह न केवल सरकार के,
बल्कि विपक्ष, मंत्रियों और पीठासीन अधिकारी के भी निकट संपर्क में रहता
है। वह सभा-कक्ष (चैम्बर) में सभापीठ के दायीं ओर की पहली पंक्ति में पहली
सीट पर बैठता है ताकि वह परामर्श हेतु पीठासीन अधिकारी को सहज उपलब्ध रहे।
नियमों के तहत, सभापति द्वारा सभा में सरकारी कार्य की व्यवस्था,
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा हेतु दिनों के आवंटन अथवा समय के आवंटन,
शुक्रवार के अलावा किसी अन्य दिन को गैर-सरकारी सदस्यों के कार्य, अनियत
दिन वाले प्रस्तावों पर चर्चा, अल्पकालिक चर्चा और किसी धन विधेयक पर विचार
एवं उसे वापस किये जाने के संबंध में सदन के नेता से परामर्श किया जाता
है। महान व्यक्तित्व, राष्ट्रीय नेता अथवा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित
व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में उस दिन के लिए सभा के स्थगन अथवा
अन्यथा के मामले में सभापति उनसे भी परामर्श कर सकते हैं। गठबंधन सरकारों
के युग में उनका कार्य और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। वह यह सुनिश्चित
करते हैं कि सभा के समक्ष लाये गए किसी भी मामले पर सार्थक चर्चा के लिए
सभा में हर संभव तथा उचित सुविधा प्रदान की जाए। वह सभा की राय व्यक्त करने
और इसे समारोह अथवा औपचारिक अवसरों पर प्रस्तुत करने में सभा के वक्ता के
रूप में कार्य करते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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