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गणित का नोबेल फील्ड्स मेडल जीतने वाले पहले भारतवंशी 40 वर्षीय
मंजुल को नंबर थ्योरी का विशेषज्ञ माना जाना जाता है। केरल मूल के केमिस्ट
पिता डॉ. वीपी मुरलीधरन और राजस्थानी मूल की गणितज्ञ मां मीरा भार्गव के
बेटे मंजुल आज उसी प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं, जहां से उन्होंने
पीएचडी की।
8 साल की उम्र में जब संतरे गिनने में दिक्कत हुई तो उन्होंने
फॉर्मूला बनाने की ठानी। महीनों तक मेहनत
करने के बाद आखिरकार उन्होंने फॉर्मूला बनाकर ही दम लिया। फिर तो पिरामिड देख कर बता देते थे कि ठेले पर कितने फल लगे हैं एक साथ। 2001 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के दौरान उन्होंने नंबर थ्योरी की 200 साल पुरानी प्रॉब्लम को चुटकियों में सॉल्व कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
तीन साल की उम्र से ही मंजुल को अपने चारो ओर हर चीज में सिर्फ मैथ्स दिखाई पड़ती थी। बड़े से बड़े सवालों के हल उनकी उंगलियां पर होते थे। न्यूयॉर्क की हॉफस्ट्रा यूनिवर्सिटी में मैथ्स की प्रोफेसर मां मीरा भार्गव को वह यह कहकर परेशान करते थे कि ‘मुझे और मैथ्स पढ़ाओ, मुझसे सवाल पूछो’। पीछा छुड़ाने के लिए मीरा उन्हें जोड़ने और गुणा करने के लिए लंबी-लंबी डिजिट्स दे देती थीं। उन्हें लगता था कि मंजुल इसी में उलझा रहेगा। लेकिन होता उल्टा था। पेपर और पेंसिल का इस्तेमाल किए बगैर मंजुल उंगलियों को यहां-वहां नचाकर तुरंत सवालों के सही जवाब दे देते। आश्चर्य में डूबीं मीरा जब मंजुल से पूछतीं कि उन्होंने यह कैसे किया, वह हंस कर टाल देते। जब मंजुल आठ साल के हुए तो वे एक बार अपनी मां के साथ फल खरीदने बाजार गए। वहां उन्होंने पिरामिड के शेप में रखे सैकड़ों संतरे देखे। उन्हें गिनने में दिक्कत हुई तो उन्होंने इसके लिए फॉर्मूला बनाने की ठानी।
फलों के पिरामिड देखकर मां को बता देते थे कि उसमें कितने फल सजे हैं: महीनों कई फॉर्मूला बनाए और मिटाए। आखिरकार उन्होंने फॉर्मूला बनाकर ही दम लिया। फिर तो बाजार में पिरामिड देखकर मां को बता देते कि उसमें कितने फल सजे हैं। मैथ्स के प बड़ी-बड़ी प्रॉब्लम सुलझाने में उन्हें इतना मजा आने लगा कि वे स्कूल से बोर होने लगे। मां के साथ यूनिवर्सिटी जाने की जिद करते। मीरा हफ्ते में दो-तीन बार मंजुल को साथ ले जाने लगीं। मंजुल यहां अधिकतर समय लाइब्रेरी में मैथ्स की किताबों में डूबे रहते। हां, मीरा जब मंजुल के पसंदीदा विषय प्रॉबेबिलिटी की क्लास लेतीं, तो वे उसे जरूर अटेंड करते।
पढ़ाई के दौरान टीचर मां की गलतियों को भी करते थे ठीक: प्रॉबेबिलिटी की क्लास के दौरान जब उनकी मां कोई गलती करतीं तो वे उसे ठीक कर देते। भारतीय जड़ों से बेटे को जोड़े रखने के लिए मीरा हर साल मंजुल को उसके नानाजी परुषोत्तम लाल भार्गव के पास जयपुर लाती थीं। पुरुषोत्तम राजस्थान यूनिवर्सिटी में संस्कृत विभाग के एचओडी थे। वे मंजुल को प्राचीन गणित पढ़ाते और संस्कृत में कहानियां सुनाते। नाना के कहने पर मीरा तबला सीखने के लिए मंजुल को उस्ताद जाकिर हुसैन के पास भेजने लगीं।
तबले के शौक के कारण कई सालों तक नियमित स्कूल नहीं गए: जयपुर यूनिवर्सिटी क्लासेज और तबला सीखने के चक्कर में मंजुल कई सालों तक नियमित रूप से अपने स्कूल नहीं गए। इसका खामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ा। स्कूल में अनुपस्थिति कम होने के कारण मंजुल को स्कूल ने 1992 में हाईस्कूल की परीक्षा में बैठने से मना कर दिया था। हालांकि बाद में उन्हें अनुमति मिल गई। 2001 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के दौरान उन्होंने नंबर थ्योरी की 200 साल पुरानी प्रॉब्लम को चुटकियों में सॉल्व कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
अपने काम से पाई पांच साल की फेलोशिप: पीएचडी में मंजुल द्वारा की गई रिसर्च से प्रभावित होकर क्ले मैथमटिक्स इंस्टीट्यूट ने उन्हें पांच साल की फेलोशिप का ऑफर दिया। फेलोशिप करते दो साल ही हुए थे कि उन्हें नौकरियों के ऑफर आने लगे। ज्यादा से ज्यादा पैसे पर कई यूनिवर्सिटी इस युवा मैथमटीशियन को अपने यहां ले जाने को तैयार थीं। 28 साल की उम्र में मंजुल ने उसी प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के ऑफर को स्वीकारा, जहां से उन्होंने ग्रेजुएशन किया था। यूनिवर्सिटी के इतिहास में दूसरे सबसे युवा प्रोफेसर बने।
नए काम के लिए खिलौनों का सहारा: उन्हें अपने पूर्व प्रोफेसरों को उनके नाम से बुलाना पड़ता था, जो उन्हें अजीब और खराब लगता। यूनिवर्सिटी की 12वीं मंजिल पर उनके ऑफिस की टेबल पर रूबक क्यूब, ज़ूमटूल्स और पाइन कोन्स बिखरे रहते हैं। जब भी वे नई चीज पर काम करते हैं तो इन खिलौनों के साथ गार्डन में निकल जाते हैं। मंजुल का कहना है कि कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि उन्हें कोई नया आइडिया, लेकिन वे उसे प्रकट नहीं कर पाए क्योंकि इसके लिए कोई लेंग्वेज ही डेवलेप नहीं हुई थी।
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करने के बाद आखिरकार उन्होंने फॉर्मूला बनाकर ही दम लिया। फिर तो पिरामिड देख कर बता देते थे कि ठेले पर कितने फल लगे हैं एक साथ। 2001 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के दौरान उन्होंने नंबर थ्योरी की 200 साल पुरानी प्रॉब्लम को चुटकियों में सॉल्व कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
तीन साल की उम्र से ही मंजुल को अपने चारो ओर हर चीज में सिर्फ मैथ्स दिखाई पड़ती थी। बड़े से बड़े सवालों के हल उनकी उंगलियां पर होते थे। न्यूयॉर्क की हॉफस्ट्रा यूनिवर्सिटी में मैथ्स की प्रोफेसर मां मीरा भार्गव को वह यह कहकर परेशान करते थे कि ‘मुझे और मैथ्स पढ़ाओ, मुझसे सवाल पूछो’। पीछा छुड़ाने के लिए मीरा उन्हें जोड़ने और गुणा करने के लिए लंबी-लंबी डिजिट्स दे देती थीं। उन्हें लगता था कि मंजुल इसी में उलझा रहेगा। लेकिन होता उल्टा था। पेपर और पेंसिल का इस्तेमाल किए बगैर मंजुल उंगलियों को यहां-वहां नचाकर तुरंत सवालों के सही जवाब दे देते। आश्चर्य में डूबीं मीरा जब मंजुल से पूछतीं कि उन्होंने यह कैसे किया, वह हंस कर टाल देते। जब मंजुल आठ साल के हुए तो वे एक बार अपनी मां के साथ फल खरीदने बाजार गए। वहां उन्होंने पिरामिड के शेप में रखे सैकड़ों संतरे देखे। उन्हें गिनने में दिक्कत हुई तो उन्होंने इसके लिए फॉर्मूला बनाने की ठानी।
फलों के पिरामिड देखकर मां को बता देते थे कि उसमें कितने फल सजे हैं: महीनों कई फॉर्मूला बनाए और मिटाए। आखिरकार उन्होंने फॉर्मूला बनाकर ही दम लिया। फिर तो बाजार में पिरामिड देखकर मां को बता देते कि उसमें कितने फल सजे हैं। मैथ्स के प बड़ी-बड़ी प्रॉब्लम सुलझाने में उन्हें इतना मजा आने लगा कि वे स्कूल से बोर होने लगे। मां के साथ यूनिवर्सिटी जाने की जिद करते। मीरा हफ्ते में दो-तीन बार मंजुल को साथ ले जाने लगीं। मंजुल यहां अधिकतर समय लाइब्रेरी में मैथ्स की किताबों में डूबे रहते। हां, मीरा जब मंजुल के पसंदीदा विषय प्रॉबेबिलिटी की क्लास लेतीं, तो वे उसे जरूर अटेंड करते।
पढ़ाई के दौरान टीचर मां की गलतियों को भी करते थे ठीक: प्रॉबेबिलिटी की क्लास के दौरान जब उनकी मां कोई गलती करतीं तो वे उसे ठीक कर देते। भारतीय जड़ों से बेटे को जोड़े रखने के लिए मीरा हर साल मंजुल को उसके नानाजी परुषोत्तम लाल भार्गव के पास जयपुर लाती थीं। पुरुषोत्तम राजस्थान यूनिवर्सिटी में संस्कृत विभाग के एचओडी थे। वे मंजुल को प्राचीन गणित पढ़ाते और संस्कृत में कहानियां सुनाते। नाना के कहने पर मीरा तबला सीखने के लिए मंजुल को उस्ताद जाकिर हुसैन के पास भेजने लगीं।
तबले के शौक के कारण कई सालों तक नियमित स्कूल नहीं गए: जयपुर यूनिवर्सिटी क्लासेज और तबला सीखने के चक्कर में मंजुल कई सालों तक नियमित रूप से अपने स्कूल नहीं गए। इसका खामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ा। स्कूल में अनुपस्थिति कम होने के कारण मंजुल को स्कूल ने 1992 में हाईस्कूल की परीक्षा में बैठने से मना कर दिया था। हालांकि बाद में उन्हें अनुमति मिल गई। 2001 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने के दौरान उन्होंने नंबर थ्योरी की 200 साल पुरानी प्रॉब्लम को चुटकियों में सॉल्व कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया।
अपने काम से पाई पांच साल की फेलोशिप: पीएचडी में मंजुल द्वारा की गई रिसर्च से प्रभावित होकर क्ले मैथमटिक्स इंस्टीट्यूट ने उन्हें पांच साल की फेलोशिप का ऑफर दिया। फेलोशिप करते दो साल ही हुए थे कि उन्हें नौकरियों के ऑफर आने लगे। ज्यादा से ज्यादा पैसे पर कई यूनिवर्सिटी इस युवा मैथमटीशियन को अपने यहां ले जाने को तैयार थीं। 28 साल की उम्र में मंजुल ने उसी प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के ऑफर को स्वीकारा, जहां से उन्होंने ग्रेजुएशन किया था। यूनिवर्सिटी के इतिहास में दूसरे सबसे युवा प्रोफेसर बने।
नए काम के लिए खिलौनों का सहारा: उन्हें अपने पूर्व प्रोफेसरों को उनके नाम से बुलाना पड़ता था, जो उन्हें अजीब और खराब लगता। यूनिवर्सिटी की 12वीं मंजिल पर उनके ऑफिस की टेबल पर रूबक क्यूब, ज़ूमटूल्स और पाइन कोन्स बिखरे रहते हैं। जब भी वे नई चीज पर काम करते हैं तो इन खिलौनों के साथ गार्डन में निकल जाते हैं। मंजुल का कहना है कि कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि उन्हें कोई नया आइडिया, लेकिन वे उसे प्रकट नहीं कर पाए क्योंकि इसके लिए कोई लेंग्वेज ही डेवलेप नहीं हुई थी।
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साभार: भास्कर समाचार
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