एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
सोमवार को सुबह सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मेहबूबा मुफ्ती के जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने की खबर छाई रही। कहा जा रहा है कि राज्य में राजनीति आज भी गहराई से पितृसत्तात्मक है और मेहबूबा के सामने मौजूद कई चुनौतियों में इस स्थिति में बदलाव लाना भी अहम है। ऐसे दो मामले हमारे सामने हैं। एक में महिलाओं ने मिलकर समुदाय के हित में फैसला लिया और एक मामले में अकेली महिला ने शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं।
स्टोरी 1: शराबखोरीइस क्षेत्र में बड़ी समस्या है। सबसे ज्यादा महिलाओं को इसके बुरे प्रभाव झेलने पड़ते हैं। शराब की लत के कारण लोग घर का आखिरी बर्तन तक बेच देते हैं। वर्षों तक प्रताड़ित होने के बाद महिलाओं ने शराब की दुकानों के खिलाफ अभियान चलाया। दुकान बंद कराने के लिए सरकारी अधिकारियों से मिलना काफी कड़वा अनुभव रहा, लेकिन 2016 में महिलाएं एकजुट हुईं और सभी सरकारी कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा किया। महिलाओं ने अपने इलाके की शराब की दुकान बंद करवाने में सफलता हासिल की। यह उपलब्धि हासिल करने वाला राजसमंद जिले का कचाबली राजस्थान का पहला गांव है। यह जयपुर से 330 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां गांव की एक मात्र शराब की दुकान बंद करवाने में महिलाओं ने सफलता हासिल की है। राज्य के एक्साइज विभाग ने गांव में वोटिंग कराई तो गांव के 80 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे गांव में शराब बिक्री पर पूरी तरह प्रतिबंध चाहते हैं। मतदान राजस्थान एक्साइज नियमों के तहत करवाया गया। इसके अनुसार पंचायत गांव की शराब की दुकान बंद करवाने का फैसला कर सकती है. बशर्ते गांव के 50 प्रतिशत लोग इसके समर्थन में वोटिंग करें। कैंपेन गांव की सरपंच गीता ने चलाया और उसके मार्गदर्शन में वोटिंग की गई। वोटिंग पर तहसीलदार की रिपोर्ट कलेक्टर को भेजी जाएगी, जो दुकान सील करने के लिए इस रिपोर्ट को एक्साइज विभाग को भेजेंगे। दुकान इस माह कभी भी बंद कर दी जाएगी।
स्टोरी 2: एकआदिवासी महिला ने यह बात साबित करने के लिए 20 साल लड़ाई लड़ी कि वह अनुसूचित जनजाति की है। दरअसल सरकार ने उन्हें यह कहते हुए नौकरी से निकाल दिया था कि वह एसटी दर्जे की हकदार नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। हाल ही में गुजरात हाई कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि भड़ूच जिले की झगाडिया की रहवासी मालिनी ठाकोर को सचिवालय में रिसर्च असिस्टेंट की उनकी नौकरी वापस दी जाए। इस मामले में सरकार यह साबित नहीं कर पाई कि वह एसटी वर्ग में नहीं आती हैं। मालिनी ने गुजरात विधानसभा सचिवालय सेवा श्रेणी- 3 में शोध सहायक की परीक्षा 1996 में पास की थी। 2 अगस्त 1996 को उन्हें पद पर एक साल की प्रोबेशन अवधि के लिए नियुक्त किया गया, ताकि इस बीच उनके एसटी प्रमाणपत्र का सत्यापन किया जा सके। सरकार को पता चला कि उनका जाति प्रमाणपत्र गलत है और वे धर्मांतरण कर ईसाई बन गई हैं, इसलिए उनकी सेवा समाप्त कर दी गई।
इसके बाद मालिनी ने हाईकोर्ट में कई याचिकाएं लगाईं और नियुक्ति खत्म करने की समीक्षा की मांग की। सरकार की बनाई समिति ने उनके पक्ष में फैसला दिया, लेकिन उन्हें नौकरी पर बहाल नहीं किया गया। इसलिए 1999 में फिर से हाईकोर्ट में याचिका लगाई। उन्होंने सरकार के 14 मई 1958 के उस फैसले को सामने रखा, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के ईसाई या इस्लाम या अन्य किसी धर्म में धर्मांतरण के बाद भी वह एसटी के रूप में मिलने वाली सुविधाओं का लाभ ले सकेगा। दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद कोर्ट ने सरकार के फैसले को रद्द कर दिया और उन्हें फिर नौकरी में लेने का आदेश दिया।
फंडा यह है कि साहसका कोई और विकल्प नहीं है। अगर इसका ठीक से उपयोग किया जाए तो इससे जरूरी बदलाव लाए जा सकते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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