एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
शुक्रवार देर रात मैं मुंबई-पुणे हाईवे पर एक खाने के ठिकाने से कार शुरू कर पत्नी के साथ घर लौटने की तैयारी में था। उसी समय एक युगल एकदम नई गाड़ी लेकर वहां आया और पार्किंग की उस जगह पर जाने का संकेत दिया, जिसे मैं खाली करने वाला था। उस कार के ड्राइवर ने अपर डीपर लाइट से मुझे इशारा किया। ड्राइवर सीट
के नज़दीक बैठी मेरी पत्नी ने अचानक देखा कि उस कार में वह युगल एक-दूसरे से इतना सटकर बैठा था कि उनके बीच में से शायद तिनका भी नहीं निकल सकता था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। एडमैन पीयूष पांडे यह दृश्य देखते तो शायद फेविकॉल का एक और शानदार विज्ञापन बना देते। ऐसी उनकी नज़दीकी थी।
पुरानी याद की चाशनी में घुले स्वर में पत्नी ने कहा, 'आपको याद है हम भी इसी तरह बैठते थे।' मेरे तार्किक मन ने सोचा कि ड्राइवर के रूप में मैं तो अब भी उसी जगह बैठा हूं, क्योंकि मुझे कार चलानी थी। यह तो मेरे पास बैठी सहयात्री खिड़की तरफ सरक गई है। एेसा सोचकर मैंने यह कहने के लिए मुंह खोला, 'मैं तो एक इंच भी नहीं सरका हूं, मैं अब भी वहीं बैठा हूं जहां मैं बैठा करता था,' लेकिन शब्द मेरे मुंह में फंसकर रह गए, क्योंकि कुछ कहना यानी अप्रिय संवाद की शुरुआत करना होता। मैं सिर्फ मुस्कराया और ऐसा जताया मानो मैं उसकी सीट के नज़दीक खिसक रहा हूं।
जहां मेरी पत्नी खिड़की से काफी इधर खिसकी आई थी और कार के रेडियो से बज रहे पुरानी बॉलीवुड गीत की मधुरता में खो गई, मेरे विचारों में उथल-पुथल मच गई। मैं सोचने लगा कि किसके साथ मैं बेधड़क कुछ भी कह देता था। मुझे मालूम था कि यह मेरी मां ही थीं, जिनके साथ मैं बहुत ही बेबाक रहता था। फिर चाहे बातचीत में पत्नी ही क्यों मौजूद हो। कई बार पत्नी को आश्चर्य होता कि मैं मां की बातों पर कैसी तीखी प्रतिक्रिया देता हूं। तब मां कहती, 'वह ऐसा ही है, लेकिन उसका दिल सोने-सा खरा है। वह बहुत ही अच्छा आदमी है।'
फिर मुझे अहसास हुआ कि उनके गुजर जाने के बाद मेरे शब्दों का तीखापन खो गया है और मैं सिर्फ सही होने की बजाय स्थिति की नजाकत के मुताबिक सही रुख लेने लगा हूं। मुझे हमेशा इस बात का आश्चर्य होता है कि बच्चों के कठोर-कर्कश शब्दों पर मां कभी उत्तेजित नहीं होतीं। हालांकि, इसका मुझे कभी जवाब नहीं मिला। किंतु शनिवार को जारी हुए अमेरिका की मिसौरी यूनिवर्सिटी के हैले हॉर्स्टमैन की रिसर्च के नतीजों में इसका कुछ जवाब मिला है। जब हम किसी कठिन अनुभव से गुजरते हैं तो प्राय: उसे कहानी में तब्दील कर देते हैं। हम एक कथानक, एक माहौल, दृश्य और पात्र खड़े कर देते हैं। कहानी कहने से हमें नकारात्मक अनुभव से निपटने में आसानी होती है।
हॉर्स्टमैन ने अपने प्रयोग में 60 युवा-वयस्क पुत्रियों को अपनी लैब में बुलाया और उन्हें अपने किसी कठिन अनुभव की कहानी सुनाने को कहा। उन्होंने कहानियां लिखी और कुछ प्रश्नों के जवाब दिए। दो दिन बाद वे अपनी मां को लेकर लैब में आईं और उसी कहानी के बारे में 15 मिनट तक बोलती रहीं। इसके दो दिन बाद बेटियों ने पहले चरण को फिर दोहराया। फिर से अपनी कहानी लिखी और उन्हीं प्रश्नों के जवाब दिए। फिर शोधकर्ताओं ने पहली और अंतिम कहानियों की तुलना की। पहली नकारात्मक थी जबकि अंतिम कहानी सकारात्मक थी, तब भी जब उनकी माताअों के पास उनकी समस्याओं का कोई समाधान नहीं था।
इस अध्ययन से उजागर हुआ कि मां अपने बेटी की बात जितना अधिक सुनती, उतना कहानी का नकारात्मक वर्णन थोड़ा सकारात्मक हो जाता, फिर चाहे मां उससे असहमत ही क्यों हो। हॉर्स्टमैन ने कहा, आमतौर पर रोज होने वाली हमारी बातचीत को हम इतना महत्व नहीं देते, फिर चाहे वह अपनी मां के साथ हुई बातचीत ही क्यों हो। लेकिन इस बातचीत में वह शक्ति है कि वह जीवन के हमारे अनुभव समझने में हमारी मदद करती है।'
फंडा यह है कि मां की तरह व्यवहार करके बिना एक शब्द कहे धैर्यपूर्वक किसी की बात सुनना उस व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव डालता है। इससे उसका भला होता है। यही तो मैंने उस दिन किया था।
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साभार: भास्कर समाचार
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