Sunday, May 15, 2016

हॉस्टल छात्राओं पर लेख: पिंजरा तोड़ें मगर सावधानी से

क्षमा शर्मा (वरिष्ठ स्तम्भकार व लेखिका)
इन दिनों दिल्ली में कॅालेज में पढ़ने वाली छात्राओं द्वारा चलाए जा रहे पिंजरा तोड़ अभियान की चर्चा है। इसकी शुरुआत पिछले साल जामिया मिलिया विवि के उस नोटिस के जारी होने के बाद हुई थी जिसमें कहा गया था कि लड़कियों को हॉस्टल में किस समय तक लौट आना चाहिए। हाल में एक प्रेस कांफ्रेंस की गई जिसमें कहा गया
था कि हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं के साथ प्रशासन द्वारा कितना भेदभाव किया जाता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उनके लिए समय पर आने-जाने का कर्फ्यू लगा रहता है। समय पर लौटने की पाबंदी के कारण न तो वे देर रात तक खुलने वाली प्रयोगशालाओं का लाभ उठा सकती हैं और न ही पुस्तकालय में बैठकर पढ़ सकती हैं। न गए रात कहीं आ-जा सकती हैं। इस प्रेस कांफ्रेंस में एक पोस्टर भी दिखाया गया। जिसमें लड़कियों की तरफ से लिखा था-आई एम आउट टु नाइट। इस आंदोलन में दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, अंबेडकर विश्वविद्यालय, नेशनल ला युनिवर्सिटी और जामिया मिलिया की छात्रएं शामिल हैं। इन्हें बहुत से गैर सरकारी संगठन और राष्ट्रीय महिला आयोग तथा दिल्ली महिला आयोग का समर्थन हासिल है। दिल्ली महिला आयोग ने तो इन विवि को नोटिस भी जारी किया है और भेदभाव पूर्ण नीतियों के खिलाफ जवाब मांगा है। हालांकि दिल्ली महिला आयोग ने पहले भी जामिया मिलिया इस्लामिया को इस संदर्भ में नोटिस जारी किया था, लेकिन बताया जाता है कि उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया। आंदोलनरत छात्राओं ने दिल्ली महिला आयोग को इस बात के लिए बधाई भी दी कि कम से कम पहली बार किसी सरकारी संस्था ने उनकी बात सुनी है और उनके पक्ष में काम करने की कोशिश की है। लड़कियों का मुख्य आरोप यह है कि होस्टल के नियम,आने-जाने की पाबंदी सिर्फ उन पर ही क्यों? लड़कों के होस्टलों में तो ऐसे कोई नियम लागू नहीं हैं। यह लैंगिक भेदभाव है और इसे दूर होना चाहिए।
यह एक तथ्य है कि दुनियाभर में लड़कियां-महिलाएं लैंगिक भेदभाव का शिकार हैं और इसे हर हाल में दूर होना चाहिए। इस लेखिका को सत्तर का दशक याद आता है। तब मानुषी पत्रिका ने लड़कियों के होस्टलों पर लगने वाले तालों के खिलाफ अभियान भी चलाया था। तब आज की तरह न तो महिला विमर्श का इतना जोर था और न 24 घंटे का मीडिया था। निर्भया कांड के बाद यह सवाल जोरों से उठा था कि आखिर दिल्ली महिलाओं के लिए इतनी असुरक्षित क्यों है? यह सवाल अभी भी मौंजूद है। अपने देश में देर रात बाहर निकली औरत-लड़की के लिए न महानगर सुरक्षित हैं,न गांव और न ही कसबे। यहां तक कि मॅाल्स, होटल और पब भी नहीं। आजादी की मांग और चाहत अच्छी बात है और हर वह बेड़ी जिसके कारण लड़कियों को किसी न किसी तरह की कैद सौंपी जाती है, टूटनी चाहिए, लेकिन रात बाहर निकलने पर कौन अपराधी शिकार की तलाश में है, इसकी गारंटी कौन ले सकता है- न पुलिस, न महिला आयोग और न ही एनजीओ।
किसी घटना के बाद बयान देने वाले तो आ ही जाते हैं, मगर असली आफत उस लड़की को ङोलनी पड़ती है जिसके साथ कोई हादसा हुआ होता है। हो सकता है कि दो-चार दिन खबर बने, मगर फिर सब खामोश हो जाते हैं। आखिर इस मामले में उन माता-पिता से कुछ पूछने की कोई जरूरत क्यों नहीं समझी जाती जिन्होंने अपनी लड़कियों को यहां पढ़ने भेजा है? क्या उनसे किसी ने पूछा कि वे क्या चाहते हैं। माता-पिता न जाने कितनी आफतें ङोलकर हॅास्टल का खर्चा उठाते हैं जिससे लड़कियों का भविष्य बन सके। जब माता-पिता लड़की को बाहर भेजते हैं तो उनकी प्रमुख चिंता उनकी सुरक्षा ही होती है। आखिर माता-पिता और परिवार को लड़कियों का सबसे बड़ा शत्रु क्यों घोषित किया जा रहा है? इस आंदोलन को चलाने वालों ने उनकी राय जानने की कोशिश क्यों नहीं की या फिर सबको पता है कि माता-पिता इस बात के खिलाफ ही होंगे कि उनकी लड़कियां गए रात बाहर रहें? आज भी लड़की अगर समय पर घर नहीं लौटती तो माता-पिता की सांस रुक जाती है। हमें समझना होगा कि एब्सोल्यूट आजादी कहीं नहीं होती। वह सिर्फ एक भ्रम होता है। आखिर जीवन, चिकित्सा विज्ञान, विज्ञान, यह धरती, अंतरिक्ष यहां तक कि तकनीक किसी न किसी नियम से ही चलती है। यह सही है कि लड़कियों के मामले में वे नियम नहीं चल सकते जो पितृसत्तात्मक समाज ने बनाए हैं, मगर यह मानना ठीक नहीं कि पश्चिम लड़कियों के लिए स्वर्ग है। पिछले दिनों क्वीन नामक फिल्म ने यह साबित करने की कोशिश की है, मगर ऐसा है नहीं। अगर ऐसा होता तो ब्रिटेन जैसी छोटी आबादी वाले देश में हर साल हजारों की संख्या में दुष्कर्म न होते और पूरे पश्चिम में औरतों ने अपराधों से निजात पा ली होती। 
अपनी सुरक्षा और अपना बचाव खुद के ही हाथों में होता है। दिल्ली की डेढ़ करोड़ से ज्यादा जनता की समस्या निपटाने के लिए मात्र कुछ हजार पुलिस वाले हैं और कानून की न्याय देने की रफ्तार बहुत धीमी है। यह कहा जा सकता है अगर सुरक्षा एजेंसियों में लोगों की संख्या कम है और न्याय देर से मिलता है तो उसका फल हम क्यों भुगतें, लेकिन यदि हम समाज में सब कुछ को बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर डालकर चुप बैठ जाएंगे तो निश्चय ही उसके कुछ गलत परिणाम भी सामने आ सकते हैं। महानगरों में किसी आंदोलन को चलाने वाली महिलाओं को उन बहुसंख्यक महिलाओं का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता जो आज भी दो वक्त की रोटी, मामूली शिक्षा और मामूली अधिकारों से वंचित हैं। खाए-पिए अघाए मध्यवर्ग को शायद वे उसी तरह दिखाई नहीं देतीं जैसे मीडिया को नहीं दिखतीं। दिखाई भी देती हैं तो तब जब वे किसी हादसे का शिकार हो जाती हैं। इसीलिए न तो वे कभी बयान बहादुरों की चिंता के केंद्र में होती हैं और न सरकारों के।
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साभारजागरण समाचार 
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